इनके रिश्ते हमेशा ठने रहे!

0
229

राजनीति में कुछ कहावते बहुत चर्चित रहीं है। जैसे कि राजनीति संभावनाओं का खेल है। इसमें न तो कोई स्थायी दोस्त होता हे और न ही स्थायी दुश्मन होता है। अपनी सुविधा के अनुसार कदम उठाए जाते हैं। जब महाराष्ट्र में चल रही सत्ता की सौदेबाजी को देखता हूं तो ये कहावतें याद आ जाती है। महाराष्ट्र की घटनाएं बताती हैं कि किस तरह सत्ता पाने के लिए दो परस्पर विरोधी दल एक दूसरे के साथ आते रहे हैं।

नवीनतम मामला महाराष्ट्र का है। जहां विधानसभा चुनाव में मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद नतीजे आने के बाद तय अवधि में सरकार न बना पाने के कारण पिछली सरकार में भाजपा मुख्यमंत्री रहे देवेन्द्र फडनवीस ने अपना इस्तीफा दे दिया। वजह यह रही कि शिव सेना इस बात पर अड़ गई कि पहले उसकी पार्टी से ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री बनाया जाए। उसका दावा था कि चुनाव के पहले भाजपा नेताओं ने उससे यह वादा किया था। हालांकि भाजपा ने इस तरह का कोई वादा करने से स्पष्ट इंकार किया है। सो महाराष्ट्र कार्यकारी सरकार के चल रहा है व नई सरकार बनाने की जोड़-तोड़ जारी है।

पहली बार भाजपा व शिवसेना ने 1989 के लोकसभा चुनाव के पहले हिंदुत्व के मुद्दे पर अपना पहला गठबंधन किया था। उस समय भाजपा की ओर से प्रमोद महाजन, शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे से बात किया करते थे जिन्हें कि ठाकरे बहुत चाहते थे। तब तक भाजपा का महाराष्ट्र में जनाधार नहीं था। भाजपा वहां अपनी जड़े जमाना चाहती थी तो शिवसेना उसके हिंदुत्व के मुद्दे की मदद से कांग्रेस का सफाया करना चाहती थी जो कि राज्य में काफी मजबूत थी।

उस बार भाजपा व शिवसेना के बीच तमिलनाडु में द्रमुक व कांग्रेस की तरह से होनेवाला चुनावी समझौता हुआ। भाजपा ने कांग्रेस की तरह लोकसभा की ज्यादा सीटें लड़ी व शिवसेना ने राज्य में सरकार बनाने के लिए ज्यादा विधानसभा सीटें ली। तब शिवसेना 183 विधानसभा सीटों पर लड़ी और 52 सीटें जीती। भाजपा वहीं 104 सीटों पर चुनाव लड़कर 42 सीटें जीती। मानोहर जोशी विपक्ष के नेता बने व बाद में उन्हीं के दल शिवसेना के छगन भुजबल ने उन्हें चुनौती दी। उसके बाद छगन भुजबल कांग्रेस व केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने पर उसमें शामिल हो गए। दिसंबर 1992 में बाबरी विध्वंस व मार्च 1993 में मुंबई विस्फोटों के बाद कांग्रेस के खिलाफ हुए ध्रुवीकरण के कारण 1995 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 65 व शिवसेना ने 73 सीटें जीतीं। तब बाल ठाकरे ने यह फार्मूला दिया था कि ज्यादा सीटें जीतने वाला दल ही अपना मुख्यमंत्री बनाए। मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने व भाजपा के गोपीनाथ मुंडे उप मुख्यमंत्री थे।

हालांकि मिलकर सत्ता बनाने के बावजूद वे एक दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहें। वे दोनों 1999 के विधानसभा चुनाव मिलकर लड़े। हालांकि दोनों ने ही एक दूसरे के उम्मीदवारों को हराने में कोई कमी नहीं छोड़ी ताकि उनका मुख्यमंत्री बन सके। शिवसेना के तब 56 विधायक जीते थे। भाजपा तब गोपीनाथ मुंडे को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी । दोनों दलों के बीच 23 दिनों तक मोलभाव चलता रहा। मगर कुछ माह पूर्व कांग्रेस से अलग हुए शरद पवार ने बाजी मारते हुए कांग्रेस की मदद से राकांपा की मिली जुली सरकार बना ली।

तब विलास राव देशमुख कांग्रेस से मुख्यमंत्री बने। भाजपा व शिवसेना विपक्ष में रहते हुए भी एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करते रहे। मगर 2004 के विधानसभा चुनाव में दोनों दल मिलकर लड़े। शिवसेना को 62 सीटें मिलीं। अगले साल शिवसेना के नारायण राणे एक दर्जन विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए जबकि 2009 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-राकांपा गठबंधन अपनी सरकार बनाने में सफल रहा व भाजपा को 46 व शिवसेना को 44 सीटें मिली। भाजपा से विपक्ष का नेता बना।

2014 के चुनाव में मोदी लहर के कारण भाजपा शिवसेना को ज्यादा विधानसभा सीटें देने के लिए तैयार नहीं थी। दोनों ने अलग अलग चुनाव लड़ा। शिवसेना को 63 व भाजपा को 122 सीटें मिली। संयोग से कांग्रेस व राकांपा भी अलग अलग चुनाव लड़े व चतुष्कोणीाय मुकाबले में भाजपा को फायदा पहुंचा। अंततः सेना की मदद से कुछ साल तक विपक्ष में बैठने के बाद देवेंद्र फडनवीस मुख्यमंत्री बने।

मंत्रिमंडल के 12 प्रभावी मंत्रालय हथियाने के बावजूद शिवसेना ने सरकार की आलोचना करनी बंद नहीं की। वह नोटबंदी, राफेल सौदे सरीखे मुद्दो पर भाजपा सरकार की आलोचना करती रही। उद्धव ठाकरे ने तो यहां तक कहा कि शिवसेना ने भाजपा के साथ रहकर समय बरबाद किया। दोनों दलों ने 2017 के मुंबई नगर निगम चुनाव अलग-अलग लड़े।

2019 के लोकसभा चुनाव के पहले फडनवीस ने विधानसभा चुनाव में सेना को ज्यादा जिम्मेदारी देने की बात कही। हालांकि नरेंद्र मोदी के अनुरोध पर शिवसेना ने भाजपा के मुकाबले कम सीटों पर चुनाव लड़ा। भाजपा को भरोसा था कि वह अपने बलबूते पर बहुमत हासिल कर लेगी। इस चुनाव में भाजपा 122 सीटों से घटकर 105 पर आ गई जबकि शिवसेना 63 से घटकर 56 पर आ गई। असल में भाजपा व शिवसेना के संबंधों को देखकर उत्तरप्रदेश की चर्चित कहावत याद आती है ‘फलां मुझे फूटी आंख न सुहावे, व फलां बिना मुझे नींद ने आवे’। दूसरे शब्दों में न तो दोनों साथ रह सकते हैं और न ही अलग हो पाते हैं। मेरा मानना है कि वे दोनों तो उस बुजुर्ग दंपत्ति की तरह से है जो कि न तो एक दूसरे के साथ शांतिपूर्वक रह पाते हैं और न ही एक दूसरे को तलाक देकर अलग हो पाते है। देखना यह है कि महाराष्ट्र में दोनों के बीच का विवाद कब तक चलता है।

विवेक सक्सेना
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here