आम आदमी के वास्ते ही राजनीति के रास्ते पर

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यह सब कुछ हमारे ही समयों में होना था?’ पाश की पंक्तियां उस वक्त मेरे दिमाग में घूम रही थीं, जब कल मैं एक सरकारी स्कूल में एक बच्ची से बात कर रहा था। इस उम्र में भी स्कूल आना मेरा सबसे प्रिय काम हैं। यही सपना लेकर हम राजनीति में आए थे कि शिक्षा कैसे बदले, शिक्षा के जरिए समाज कैसे बदले। इन दिनों स्कूल भवनों का उपयोग जरूरतमंद लोगों के शेल्टर और भोजन के लिए हो रहा है। प्रवासी मजदूरों की पीड़ा समझने और उनके पंजीकरण की प्रक्रिया देखने एक स्कूल गया था। वहां उस बच्ची से बात हुई। वह बच्ची उसी स्कूल की छात्रा है, लेकिन अभी लॉकडाउन के कारण अपने गांव लौटने को मजबूर है। उसकी पढ़ाई का क्या होगा, इस बात ने मुझे गहरी चिंता में डाल दिया। ऐसे बच्चों की शिक्षा बाधित होना कोरोना पर 9305 लोगों की टेस्टिंग हुई है। भारत में सर्वाधिक ‘अब हमें कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी काल का ऐसा नुकसान है, जिसका आकलन शायद कोई टेस्टिंग दिल्ली में ही हो रही है। इस वक्त तक यूपी में पड़ेगी। हमें कोरोना से लड़ते हुए जीना है। नहीं कर सकेगा।

कोराना काल के नुकसान को हमें जान-माल की क्षति के अलावा अवसरों से वंचित होने, मनोबल टूटने और भावनात्मक क्षति के तौर पर भी देखना होगा। कई प्रवासी मजदूरों से आत्मीय बातचीत के जरिए समझना चाहा कि आखिर उनमें घर लौटने की उतावली यों है। जिनके पास रहने-खाने का वैसा संकट नहीं, ऐसे लोग भी फिलहाल एक बार तो अपने ‘देस’ लौटना चाहते हैं। दिल्ली-मुंबई-बेंगलुरु उनके लिए ‘परदेस’ है। लंबे लॉकडाउन और कोरोना संक्रमण के भय ने उन्हें गहरे असुरक्षा बोध से ग्रसित कर दिया है। रेल-बस यात्रा सामान्य होती तो शायद ऐसा उतावलापन नहीं होता। बंद रास्तों ने उन्हें ज्यादा भयभीत किया है। घर-परिवार, परिजनों की चिंता अलग है। वैसे भी जब काम-रोजगार बंद है तो लोग घरों की ओर ही लौटेंगे। कृषि प्रधान देश होने के बावजूद कृषि आय अपर्याप्त होना चिंताजनक है। गांवों-कस्बों में रोजगार के अवसरों की कमी ने बड़ी आबादी को पलायन के लिए विवश किया है। कोरोनासंकट ने प्रवासी मजदूरों के लिए बेहतर अवसर प्रदान करने, मूल राज्य तथा वर्तमान राज्य दोनों जगह समुचित पंजीयन की व्यवस्था तथा सामाजिक सुरक्षा के ठोस उपाय करने पर विचार की जरूरत बताई है। कोरोना महामारी से निपटने के साथ ही देश को इन जटिल विषयों पर भी सोचना होगा। यह भी, कि ऐसे प्रवासी लोगों के बच्चों की शिक्षा और परिवार के सामाजिक जीवन में निरंतरता और सार्थकता कैसे सुनिश्चित की जाए।दिल्ली में कोरोना संक्रमण के मामले 17 हजार पार कर गए हैं। इस वत तक प्रति दस लाख की आबादी पर 9305 लोगों की टेस्टिंग हुई है।

भारत में सर्वाधिक टेस्टिंग दिल्ली में ही हो रही है। इस वत तक यूपी में प्रति दस लाख मात्र 1069 और बिहार में मात्र 571 लोगों की टेस्टिंग हो पाई थी। यानी यूपी से लगभग नौ गुना जबकि बिहार से 16 गुना ज्यादा टेस्टिंग दिल्ली सरकार ने की। ऐसे आंकड़े जानना जरूरी है। जितनी ज्यादा टेस्टिंग होगी, उतने ज्यादा केस सामने आएंगे। कोरोना से लडऩे का यही सर्वोत्तम रास्ता है। इस दिशा में की जा रही गंभीर कोशिशों का ही नतीजा है कि दिल्ली में रिकवरी रेट काफी अच्छा है, राष्ट्रीय औसत रिकवरी दर से काफी अधिक। यहां तक कि दिल्ली में कोरोना से मृत्यु दर भी कम है, हालांकि हर मौत दुखदायी है। राष्ट्रीय औसत मृत्यु दर लगभग 3.1 फीसदी है। दिल्ली में यह 1.99 फीसदी है जबकि गुजरात में 6.17 फीसदी। इस फर्क से या गुजरात मॉडल बनाम दिल्ली मॉडल का अंतर दिखता है? गुजरात, जहां नकली वेंटिलेटर चर्चा में हैं। दिल्ली, जहां इस संकट में अस्पताल ही नहीं, स्कूल भी काम आ रहे हैं। दिल्ली में हमने कोरोना के खिलाफ शुरू से ही आक्रामक रवैया अपनाया। जिस वत कुछ लोग भारत में कोरोना का खतरा मामूली बता रहे थे, उस वत दिल्ली सरकार सारे शिक्षण संस्थानों को बंद करा चुकी थी। दिल्ली के रास्ते चलकर अन्य राज्यों ने भी शिक्षण संस्थान बंद किए। इसके कारण देश के अधिकांश शहरों से हॉस्टल खाली हो गए, स्टूडेंट्स घर लौट गए। यह नहीं होता तो लॉकडाउन के बाद प्रवासी मजदूरों की तरह लाखों स्टूडेंट्स की वापसी भी समस्या होती। लॉकडाउन का निर्णय भी सबसे पहले दिल्ली ने ही लिया था। इतना ही नहीं, तीसरे चरण के लॉकडाउन के दौरान सबसे पहले अरविंद केजरीवाल ने ही साफ शदों में कहा कि ‘अब हमें कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी पड़ेगी। हमें कोरोना से लड़ते हुए जीना है। हम लंबे समय तक सब कुछ बंद करके नहीं रह सकते।’ हमें खुशी है कि इस बात को सबने माना और आज
हम कोरोना से लड़ाई के एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं। मार्च से अब तक का वत काफी चुनौतियों भरा रहा है। जिन स्कूल भवनों को उत्कृष्टता का केंद्र बनाने का सपना लेकर चल रहे थे, उन्हें अचानक राहत शिविरों में बदलना पड़ा। ढाई हजार से ज्यादा सरकारी स्कूलों में रोजाना लगभग दस लाख लोगों को भोजन कराया जा रहा है। लगभग 2.71 लाख प्रवासी मजदूरों को उनके घर भेजने का पूरा इंतजाम किया गया। लगभग चार लाख प्रवासी मजदूरों ने पंजीयन करा रखा है, जिन्हें भेजने की व्यवस्था की जा रही है। स्कूल- अस्पताल को प्राथमिकता देने के कारण इस कोरोना संकट में दिल्ली का हेल्थ इंफ्रास्ट्रचर काफी कारगर और मददगार साबित हुआ। जनहित केंद्रित स्वास्थ्य नीतियों के कारण बड़े फैसले लेना भी आसान रहा। दिल्ली के वारंटाइन केंद्र और कोरोना वार्ड उत्कृष्टता का उदाहरण हैं। कोरोना वॉरियर्स के अच्छे होटलों में रहने की व्यवस्था, उनके कोरोना संक्रमित होने पर उच्चस्तरीय इलाज और दुर्भाग्यवश मृत्यु पर परिजनों के लिए एक करोड़ की समान राशि को दिल्ली के विशेष प्रयासों के बतौर देखा जाएगा। हम आम आदमी की जिंदगी में बदलाव के लिए राजनीति में आए हैं। कोशिश रहती है कि यह बदलाव हमारे हर कदम में दिखे। पाश की कविता ‘हमारे समयों में’ की पहली पंति से बात शुरू की थी, उसी की अंतिम पंक्ति से बात खत्म करना चाहूंगा- ‘यह गौरव हमारे ही समयों का होना है!’

(लेखक दिल्ली के उपमुयमंत्री हैं)

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