कांग्रेस के कई युवराजों, महाराजों को लग रहा है कि वे लोकसभा का चुनाव हार गए तो उनकी दुनिया लुट गई है! वे लोकसभा का चुनाव नहीं हारे हैं अपना सर्वस्व हार गए हैं! अब इसके बाद जीवन में कुछ करने को नहीं बचा है, कम से कम कांग्रेस पार्टी में तो बिल्कुल नहीं। उनके लिए सत्ता या पद प्राणवायु की तरह है। उसके बगैर उनका दम घुट रहा है। तभी मन में ऐसी बेचैनी है कि जल्दी से जल्दी भाग कर ऐसी जगह चले जाएं, जहां सत्ता की प्राण वायु मिल सके। अगर कांग्रेस देती है तो ठीक नहीं तो जो दे, उसके साथ जाने में परहेज नहीं है।
ग्वालियर के महाराजा श्रीमंत ज्योतिरादित्य सिंधिया इस बेचैनी की मिसाल हैं। वे अपने राजनीतिक जीवन का पहला चुनाव हारे हैं। और चुनाव हारते ही इस कोशिश में लग गए हैं कि कैसे इस हार से पीछा छुड़ाया जाए। इसके दो रास्ते हैं। एक रास्ता तो यह है कि कांग्रेस उन्हें मध्य प्रदेश का अध्यक्ष बनाए और राज्य की सत्ता में हिस्सेदारी दे। दूसरा रास्ता यह है कि वे कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में चले जाएं और उसकी विराट सत्ता का हिस्सा बन कर सत्ता सुख भोगें। वे और उनके समर्थक दोनों दिशाओं में एक साथ प्रयास करते दिख रहे हैं।
कांग्रेस ने उनको लोकसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया था। यह पहला मौका था, जब उनको अपने परिवार के बनाए आरामगाह से बाहर निकल कर काम करना था। पर वे अपनी आरामगाह में भी हार गए और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उन्होंने क्या किया था, इस बारे में ठीक ठीक कोई नहीं बता सकता है। चुनाव हारने के तुरंत बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पार्टी को अंदाजा था कि वे चुनाव हारने के बाद जल बिन मछली की तरह छटपटा रहे हैं तभी उनको चुनाव वाले राज्य महाराष्ट्र में उम्मीदवारों की छंटनी समिति का अध्यक्ष बनाया गया। पर ऐसा लग रहा है कि वे इसका बुरा मान गए हैं।
उनके समर्थकों ने इसका विरोध किया है और कहा है कि उनको महाराष्ट्र भेजने की बजाय मध्य प्रदेश का अध्यक्ष बनाया जाए। उनके समर्थक उनको अध्यक्ष बनाने का अभियान छेड़े हुए हैं। रोज उनके समर्थक नेताओं और विधायकों की बैठकें हो रही हैं और बयान दिए जा रहे हैं। उनके बारे में चर्चा है कि वे भाजपा नेताओं से मिलें हैं। वे खुद इन बातों पर न तो कोई स्पष्टीकरण दे रहे हैं और न अपने समर्थकों को चुप करा रहे हैं। तभी उनकी चुप्पी को उनका स्वीकार माना जाना चाहिए। उनकी बेचैनी इसलिए भी हैरान करने वाली है क्योंकि वे कांग्रेस के पहले परिवार के बेहद करीबी हैं। दूसरे, उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत किसी भी सामान्य सांसद या मंत्री से बड़ी है। अभी भी वे दिल्ली में एक बहुत बड़े उद्योगपति की कोठी में रहते हैं। इसके बावजूद चुनाव हारने के तीन महीने के भीतर उनका जो आचरण रहा है वह भारतीय राजनीति की बेहद भद्दी तस्वीर पेश करता है।
असल में ज्योतिरादित्य सिंधिया हों या दीपेंद्र हुड्डा हों या जितिन प्रसाद हों या सचिन पायलट इस तरह का कोई भी नेता हो, जिसने संघर्ष करके राजनीति में जगह नहीं बनाई है या जिसे राजनीति विरासत में मिली है वह न तो विचारधारा की कदर कर सकता है और न राजनीतिक मूल्यों का महत्व जान सकता है। उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि इस देश को जितना चुनाव जीतने वाले नेताओं ने बनाया है उतना ही हारने वालों ने या चुनाव नहीं लड़ने वालों ने भी बनाया है। डॉ. राम मनोहर लोहिया और किशन पटनायक अपने जीवन में सिर्फ एक-एक चुनाव जीत पाए थे। जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे कभी चुनाव नहीं लड़े। पर भारतीय राजनीति पर उनका असर अमिट है।
मौजूदा नेताओं में भी कई मिसालें हैं। एक के बाद एक कई चुनाव हारने के बाद मायावती राजनीति में अपनी जगह बना पाईं। विधानसभा के लगातार दो चुनाव हारने के बाद नीतीश कुमार पहली बार विधायक बने थे और उनकी पार्टी लगातार तीन चुनाव हारी तब जाकर उनको सत्ता मिली थी। लालू प्रसाद को शरद यादव ने हराया तो रंजन प्रसाद यादव जैसे नेता ने भी चुनाव हरा दिया, पर बिहार की राजनीति पर लालू के असर का मुकाबला कोई दूसरा नेता नहीं कर सकता है। हारने के बाद एक अच्छे राजनेता का आचरण कैसा होता है यह कांग्रेस के नेताओं को भाजपा के दिग्गज नेताओं से सीखना चाहिए। एकाध अपवादों को छोड़ कर भाजपा के सारे दिग्गज नेता कभी न कभी या कई बार चुनाव हारे थे पर किसी ने सत्ता के लिए अपनी विचारधारा से समझौता नहीं किया। परंतु अफसोस की बात है कि कांग्रेस में विचारधारा और मूल्यों की राजनीति करने वाले बहुत कम नेता बचे हैं।
अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं