आ जा वे माहीं तेरा रस्ता उडीक दीयां

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या तो भारतवासियों की हथेली में किसी लकीर की कमी है है या फिर उनके मौजूदा राजा की हथेली में। वरना छह साल से इस देश की ज़िंदगी में जो हो रहा है, सो, कैसे होता? कुदरती विपदाएं तो आती हैं। उन्हें कोई राजा नहीं लाता। लेकिन राजा ऐसी विपदाओं के समय प्रबंधन में कैसी भूमिका निभा रहा है, क्या प्रजा इसका आकलन भी न करे? एक विषाणु से निपटने के लिए पहले तो कोई राजा पूरी धमक के साथ नमूदार होता रहे, होता रहे, होता रहे और फिर दो महीने बाद दुबक कर बैठ जाए तो उस राजा को प्रजा क्या कहेगी? मौका मिलते ही हाथ-पैर फेंकना शुरू कर देना और नाकामी सामने देख कर अपने पल्ले की गर्द दूसरों के पल्लू में उंडेल देने वाले को, आप और कुछ भी कहें, धीरोदात्त नायक तो कभी नहीं कह सकते

निसर्ग से आने वाली मुसीबतों पर तो किसी का ज़ोर नहीं चलता। राजा का भी नहीं। लेकिन उन विपत्तियों का क्या, जो राजा के उतावलेपन की वजह से आती हैं? साढ़े तीन साल पहले 2016 की सर्दियों में देशवासियों को जो पसीना आया था, उसमें तो हमारी सृष्टि का कोई हाथ नहीं था! उसकी रचना तो हमारे राजा ने स्वयं पूरे परिश्रम से की थी। वह अपने राजा पर प्रजा के अगाध विश्वास का ऐसा दौर था कि जब राजा ने कहा कि उसे सिर्फ़ पचास दिन चाहिए और अगर उसके बाद वसंत नहीं आया तो उसे सज़ा देने के लिए चौराहा जनता ख़ुद चुन ले, तो प्रजा की आंखों से अपने राजा के लिए भावुक अश्रु-जल बहने लगा। पचास दिन बीत गए और पचास हफ़्ते बीतते-बीतते तो प्रजा की उन्हीं आंखों से दर्द के आंसू टपकने जो शुरू हुए तो आज भी थमने का नाम नहीं ले रहे हैं।

तो, हमने अपने राजा के प्रबंधन-कौशल को दोनों ही स्थितियों में देख लिया है। तब भी जब आसमान का सुल्तान हम पर कहर ढाए और तब भी जब हमारा शहंशाह हम पर अपने प्रयोग आज़माए। अच्छे दिन लाने का वादा करने वालों ने अब हमें आत्मनिर्भर बन जाने के लिए छोड़ दिया है। विषाणु को हराने का शंखनाद करने वालों ने अब हम से कह दिया है कि हम इस विषाणु के साथ रहना सीख लें। सो, भी अपने घर में, अपने भरोसे। सरकार के अस्पतालों में हमारे लिए जगह नहीं है। निजी अस्पतालों के बिस्तर गिनने की ज़हमत हमारा राजा अन्यान्य कारणों से उठाना नहीं चाहता। कोकिलाबेन, मेदांता, अपोलो, मैक्स, वगैरह-वगैरह को छूना क्या कोई खाला जी का खेल है?

छप्पन इंच की है तो क्या हुआ? इसलिए थोड़े ही है कि स्वास्थ्य-आपातकाल घोषित कर, आपदा-काल के लिए ही सही, सारी स्वास्थ्य सुविधाओं का राष्ट्रीयकरण कर दें! अनाप-शनाप दामों पर बिकने वाली गोली-दवा बनाने वाले कारखानों का अस्थाई अधिग्रहण करने के लिए और एक-एक मरीज़ से एक-एक दिन में छह-छह पीपीपी किट का पैसा वसूल करने वाले निजी अस्पतालों की नकेल कसने के लिए छप्पन इंच की छाती दांव पर लगा दें, इतने भी कोई नादान नहीं हैं! ये छप्पन इंची तो तिनका-तिनका जोड़ कर बरसों-बरस में खड़े किए गए छप्पन सरकारी उपक्रमों को बेचने का पराक्रम दिखाने के लिए है। तेल के कुएं बेचने हैं, विमान सेवा बेचनी है, विमानतल बेचने हैं, मेट्रो रेल बेचनी है, भारतीय रेल बेचनी है, पता नहीं क्या-क्या बेचना है।

इसलिए आप शारीरिक-स्वास्थ्य पर हमला कर रहे विषाणु के साथ रहना सीख लें, देश के आर्थिक-स्वास्थ्य को तबाह करने वाले विषाणु के साथ रहना सीख लें, भारत के सामाजिक-स्वास्थ्य को खोखला कर देने वाले विषाणु के साथ रहना सीख लें। रहना सीखने का मतलब तो जानते हैं न? चुपचाप सब सहना सीख लें। जब आप अपने तन को मीरा बना लेंगे और जब आप अपने मन को कबीर बना लेंगे तो फिर कोई आस बाकी रह ही नहीं जाएगी। ‘जा को कछु ना चाहिए, वो ही शाहंशाह’। सो, आपका प्रजापालक आपको राजमुकुट पहना रहा है। जैसे सब में ईश्वर का अंश होने के नाते सब भगवान हैं, उसी तरह यह फ़कीरी-भाव आप में से हर एक को सुल्तानी का आनंद देगा। वह फ़कीर तो अपना झोला ले कर जब जाएगा, तब जाएगा, अभी तो आप ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का मनका जपिए।

मैं जानता हूं कि आपकी आंखों से किन यादों का पानी बह रहा है। मैं जानता हूं कि आज की आपकी धड़कनें भविष्य के दोहे रचने को बेताब हैं। मैं जानता हूं कि आपका अंतर्मन आपसे पूछ रहा है कि आख़िर इस जीवन के प्रतिमान क्या हैं? मैं जानता हूं कि आप जिंदगी के मानक-आदर्शों की पुनर्स्थापना देखने को ज़िंदा हैं। लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूं कि आपकी ये तमाम पवित्र ऋचाएं टुकुर-टुकुर देखते रहने से आकार नहीं लेंगी। आसपास नज़र दोड़ाइए और पूरी संजीदगी से सोचिए कि आप ही क्यों बर्बाद हैं? कि किन के घराने आबाद हैं? कि ये हालात बदलने के लिए क्या आसमान से कोई आएगा?

आपका राजा तो आप से खो-खो खेल रहा है। यह अनायास नहीं है कि उसकी लच्छेदार बातों के बावजूद, उसके आगमन के बाद से, भारत स्याह किस्सों की धरती बनता जा रहा है। हमें अपने राजा के वक्तव्यों और मंतव्यों में कोई तालमेल क्यों दिखाई नहीं देता है? यह सब होते हुए भी हमारी ज़ुबानों पर किस का पहरा है? हमारे होंठ पथरा क्यों गए हैं? हम असहमति में अपना हाथ उठाना भूल क्यों गए हैं? हम इतने आश्वस्त किस बूते हैं कि आराम से अपनी उंगलियां चटकाते घूम रहे हैं? कौन-सी सफ़ेद गैया की पूंछ पकड़ कर हम आज का काला-सागर पार करने की आस लगाए बैठे हैं?

राजा को आपकी कोई फ़िक्र नहीं है। राजा को हटा कर राजा बनने के इच्छाधारियों को आप से ज़्यादा अपनी फ़िक्र है। यह कुल मिला कर तो लोकतंत्र की लाज-शरम के ख़ातिर अपनी रस्में पूरी करने का युग है। मगर कुछ भलेमानुस हमेशा ऐसे होते हैं, जो गिलहरी-भाव से अपने कर्म-कर्तव्य में लगे रहते हैं। आज हमारा जनतंत्र उन्हीं के भरोसे सांसें ले रहा है। मुल्क़ की अर्थवान इकाइयों और समूहों ने अगर अपना वातायन जम्हूरियत को अब भी उपलब्ध नहीं कराया तो वह कल दूर नहीं है, जब सांसों का माली अपने भैंसे के साथ आपको प्रजातंत्र के दरवाज़े पर खड़ा मिलेगा।

कोई तीन दशक पहले आई फ़िल्म ‘हिना’ आपने देखी थी कि नहीं? ऋषि कपूर, अश्विनी भावे और ज़ेबा बख़्तियार के जीवंत अभिनय की नदी में तैरती इस अद्भुत फ़िल्म में लता मंगेशकर और सुरेश वाडकर का गाया एक गीत था–‘देर न हो जाए, कहीं देर न हो जाए… कहां है रौनके-महफ़िल, सभी यह पूछते हैं… अगर वक़्त गया तो बात गई, बस वक़्त की कीमत होती है… आ जा रे, के मेरा मन घबराए… देर न हो जाए, कहीं देर न हो जाए…’। आज मेरे भीतर उस गीत की तरन्नुम गूंज रही है। उस गाने में जिन आहों की, जिन ख़्वाबों की, जिन ख़यालों की, जिन बुझते चिराग़ों के उजालों की, कसम दे कर नायिका जिस शिद्दत से पुकार लगाती है कि ‘आ जा वे माहीं तेरा रस्ता उडीक दीयां’, आज वक़्त है कि उसी वेगवान जियादत से हम भी एक-दूसरे का आह्वान करें– ताकि देर न हो जाए, कहीं देर न हो जाए।

पंकज शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )

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