प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले शुक्रवार को पेरिस में भारतीय मूल के लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि न्यू इंडिया में किसी भी अस्थायी चीज के लिए अब कोई जगह नहीं है। उन्होंने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के ज्यादातर प्रावधानों को हटाने के सरकार के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि राम, कृष्ण की भूमि पर इस अस्थायी व्यवस्था को हटाने में 70 साल लग गए। इसके बाद उन्होंने कहा कि अब अस्थायी के लिए जगह नहीं है।
तो क्या माना जाए कि अब भारत में उनकी सरकार भी स्थायी हो गई है? ध्यान रहे चुनी हुई सरकारों का अस्थायी होना ही लोकतंत्र की खूबसूरती है। शासन की उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था इसलिए सबसे सुंदर और आकर्षक है क्योंकि यह अस्थायी है। स्थायी शासन व्यवस्था तानाशाही वाली होती है, उसमें क्रूरता और निरंकुशता का तत्व होता है। एक निश्चित अवधि के बाद बदल जाने की संभावना वाली व्यवस्था आम आदमी को भरोसा और निश्चिंतता दिलाने वाली होती है। उनको लगता है कि इस व्यवस्था को चुनने में उनकी भूमिका है और वे जब चाहें उसे बदल सकते हैं। हालांकि दुनिया के कई राजनीतिक विचारक इसे एक भ्रम मानते हैं पर यह भ्रम भी कम आकर्षक नहीं है। इसी भ्रम से पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था सबसे बेहतरीन शासन प्रणाली के रूप में स्वीकार्य है।
संविधान में अनुच्छेद 370 की अस्थायी व्यवस्था की तरह आरक्षण की भी एक अस्थायी व्यवस्था बनाई गई थी। इसे पहले दस साल के लिए लागू किया गया था। पर यह अब भारतीय संविधान का सबसे अधिक फलने फूलने और स्थायी प्रकृति की व्यवस्था हो गई है। क्या प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह अनुच्छेद 370 की अस्थायी व्यवस्था को खत्म कर दिया वैसे ही आरक्षण की अस्थायी व्यवस्था को भी खत्म करेंगे? कम से कम अभी तो ऐसा नहीं लग रहा है।
अभी तो नरेंद्र मोदी की सरकार आरक्षण का विस्तार करने में लगी है और साथ ही लोगों को यह भरोसा दिलाने में लगी है कि मोदी और शाह के होते कोई आरक्षण को हाथ भी नहीं लगा सकता है। यहां तक की राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत भी नहीं। ध्यान रहे भागवत ने पिछले दिनों आरक्षण की व्यवस्था पर बहस की बात कही तो मंडल राजनीति वाली कई पार्टियों के नेता उन पर टूट पड़े। भागवत की पाठशाला से दीक्षित होकर निकले और देश में जो कुछ भी अस्थायी है उसे खत्म करने वाले दावा करने वाले नेता भी मुंह बंद करके बैठे रहे।
असल में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनेक चीजें अस्थायी हैं। चुनी हुई सरकार अस्थायी होती है। पांच साल बाद उसके बदल जाने की संभावना होती है। प्रधानमंत्री का पद अस्थायी होती है। उस पर बैठे व्यक्ति के कभी भी बदल जाने की संभावना होती है। जिन नियमों और कानूनों से सरकारें चलती हैं वो सारी अस्थायी होती हैं और समय के साथ उन्हें बदलना होता है। तभी भारत का संविधान एक सौ बार से ज्यादा बार बदला जा चुका है। स्थायित्व जड़ता की निशानी है और परिवर्तन संसार का नियम है। यह बात संविधान और शासन प्रणाली पर लागू है तो जीवन पर भी लागू है।
संसार में भी जो वस्तुएं हैं वो सारी अनित्य हैं, जो नित्य और स्थायी प्रतीत होता है वह भी विनाशी है। सत्ता कभी स्थायी नहीं होती, सिर्फ सत्य स्थायी होता है। बुद्ध ने अनित्यवाद का सिद्धांत दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि संसार में सब कुछ क्षणभंगुर है, संसार में जितनी भी वस्तुएं हैं वो सब अनित्य हैं, जो नित्य और स्थायी प्रतीत होता है वह भी विनाशी है, जो महान प्रतीत होता है उसका भी पतन होता है, जहां संयोग है वहां वियोग भी है और जहां जन्म होता है वहां मृत्यु भी होती है। यानी जीवन चक्र से लेकर, मनुष्य का शरीर, उसके सारे संबंध और समूची समाज व्यवस्था ही अस्थायी है।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं