अश्लीलता का कोई पैमाना तय नहीं

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पिछले दिनों राज कुंद्रा को पॉर्नोग्रफी मामले गिरफ्तार किया गया, जिसके बाद पॉर्नोग्रफी कानून को लेकर चर्चा गर्म है। वैसे पॉर्नोग्रफी से संबंधित कई सख्त कानून हैं, फिर भी यह बहस हमेशा मौजूं रही है कि कंटेंट अश्लील है या उत्तेजक होते हुए भी कलात्मक है?

आईपीसी में अश्लील कंटेंट के वितरण, बिक्री और सर्कुलेशन को रोकने के लिए कानून के साथ सार्वजनिक तौर पर अश्लील हरकत करने वालों के खिलाफ केस दर्ज करने का भी प्रावधान है। लेकिन इसमें इलेक्ट्रॉनिक और वर्चुअली होने वाले कंटेंट ट्रांसमिशन की चर्चा नहीं है। इसी के चलते साल 2000 में आईटी एक्ट की धारा-67 का प्रावधान किया गया, जिसमें अश्लील सामग्री का प्रकाशन, प्रसारण या सर्कुलेशन और इसमें सहयोग करने को भी अपराध बनाया गया। हार्ड पॉर्नोग्रफी या फिर चाइल्ड पॉर्नोग्रफी को रोकने के लिए 2008 में इसमें संशोधन करके 67 (ए) और 67 (बी) धाराएं जोड़ी गईं।

आईटी एक्ट की धारा-67 के बारे में कानूनी जानकार पवन दुग्गल कहते हैं कि अगर कोई अपने बेडरूम में अपनी प्राइवेट सामग्री की भी विडियो बनाता है तो वह भी धारा 67 के दायरे में है। इसमें पहली बार में तीन साल और दूसरी बार ऐसा करने पर पांच साल तक की कैद हो सकती है। वहीं धारा 67 (ए) में अश्लील सामग्री के प्रकाशन-प्रसारण में पहली बार पकड़े जाने पर पांच तो दूसरी बार में सात साल तक की कैद है। धारा 67 (बी) कहती है कि अगर कोई चाइल्ड पॉर्नोग्रफी सर्च करता है या डाउनलोड करके स्टोर करता है या फिर उसका प्रसारण या प्रकाशन करता है तो कैद का मामला 67 (ए) जैसा ही रहेगा।

आईटी एक्ट की धारा 67 आने के बाद यह बहस तेज हुई कि कि प्राइवेट लाइफ या बेडरूम में कानून का दखल कहां तक है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई अपने बेडरूम में क्या करता है, यह राइट टु प्राइवेसी का हिस्सा है। कोर्ट ने कहा था कि निजता के मूल में व्यक्तिगत घनिष्ठता, पारिवारिक जीवन, शादी, प्रजनन, घर, सेक्सुअल ओरिएंटेशन सब कुछ है। निजता का अधिकार संविधान का हिस्सा है, लेकिन यह संपूर्ण अधिकार नहीं है और यह सामाजिक, नैतिक और जनहित में केस दर केस निर्भर करेगा। जो भी रोक होगी, वह तर्कपूर्ण, निष्पक्ष और उचित होगी।

यहां यह समझना होगा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार तो है, लेकिन सामाजिक, नैतिक और जनहित के आधार पर यह अधिकार सीमित है। बेडरूम में पॉर्नोग्रफी देखना अपराध नहीं है। किसी के मोबाइल पर कोई कंटेंट आया और उसने उसे ओपन करके देखा और फिर उसे बंद कर दिया, तो यह अपराध नहीं है। लेकिन पब्लिकली ऐसा कंटेंट देखना अपराध है। वहीं अगर कोई अपने प्राइवेट एक्ट भी शूट करता है, और उसे सर्कुलेट करता है तो वह प्रकाशन के दायरे में आएगा और वह शख्स आईटी एक्ट की धारा-67 व 67 (ए) के तहत अपराधी हो जाएगा।

लेकिन हाल की सबसे बड़ी बहस यह है कि कोई विशेष कंटेंट अश्लील है या फिर इरॉटिक है? दरअसल ऐसे अपराध के आरोपी आमतौर पर अपने बचाव में कहते हैंLaw कि जो कंटेंट है वह इरॉटिक है या फिर कलात्मकता को दिखाता है और वह अश्लील नहीं है। लेकिन कानून में इरॉटिक शब्द का इस्तेमाल नहीं है। कानून में अश्लील कंटेंट की बात है। सुप्रीम कोर्ट ने 1974 में रंजीत उदेशी बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र केस में कहा था कि हम अश्लीलता को परिभाषित नहीं कर सकते। इसके लिए हम पैमाना नहीं बना सकते क्योंकि यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और यह केस दर केस निर्भर करेगा कि क्या अश्लील है और क्या नहीं है।

अदालत ने कहा था कि अगर बिना कपड़े किसी को कलात्मक दृष्टि से दिखाया जा रहा हो और उसमें रचनात्मकता और कलात्मकता का उद्देश्य हो, तो हो सकता है कि कोर्ट की नजर में वह अश्लील न माना जाए। वहीं अगर कोई ऐसा कंटेंट है जो कपड़ों में ही है, लेकिन वह अश्लीलता वाली हरकत कर रहा हो, या मकसद अश्लीलता परोसना हो तो वह अश्लील माना जाएगा। यानी यह केस दर केस निर्भर करेगा कि क्या अश्लील है और क्या नहीं।

राजेश चौधरी
(लेखक कानूनविद हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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