अयोध्या विवाद पर तलागातर लम्बी सुनवाई के बाद अब लोगों को फैसले का इंतजार है। दिल्ली से लेकर यूपी सरकार तक हलचल बढ़ गई है। अयोध्या समेत पूरे राज्य में कानून-व्यवस्था चाक-चौबंद रहे, इसके पूरे इंतजाम कर योगी सरकार मुस्तैद है। फैसले का रुख क्या होगा यह तो संवैधानिक पीठ का विषय है, लेकिन जिस तरह सुनवाई के अंतिम दिनों में हर पक्ष की अपनी आतुरता और व्यग्रता व्यवहार के रूप में सामने आई, उससे कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं। जब से यह मामला कोर्ट में चलना शुरू हुआ, इसके समाधान पर कम, लटकाने-उलझाने पर जोर ज्यादा रहा। मध्यस्थता का शिगूफा छोडक़र सिर्फ मामले को लंबा खींचने का उपक्रम हुआ। रास्ता निकलता भी भला कैसे, सबका अडिय़ल रुख ही रहा। याद करें, मध्यस्थता की एक कोशिश पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के समय में हुई थी। बातचीत के लिए सारे पक्ष जुटे तो पर अचानक वार्ता बैठकों से किनारा करने की बातें सामने आने लगीं और फिर सिलसिला थम गया। चंद्रशेखर की सरकार भी गिर गई।
नरसिंह राव के समय में भी एक ऐसा ही प्रयास हुआ। विवादित परिसर के इर्द-गिर्द आर्कि योलॉजिकल सर्वे टीम की निगरानी में हुई, जिसमें तथ्य यह उभर कर सामने आया कि उस स्थल पर मंदिर था। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के तत्कालीन हेड सहाबुद्दीन ने कहा भी था कि खोदाई में यदि मंदिर के सुबूत मिले तो मस्जिद का दावा छोड़ दिया जाएगा। पर उनके इंतकाल के बाद आर्कियोलॉजिकल सर्वे टीम की रिपोर्ट में खुलासे को अहमियत नहीं दी गई। हालांकि इलाहाबाद हाईकोर्ट में हिन्दू पक्षकारों की तरफ से उसके उल्लेख को स्वीकार करते हुए 2010 में बहुत सधा हुआ फैसला आया। लेकिन अपने-अपने निहित आग्रहों के चलते उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के समय लगातार सुनवाई की संभावना पर किन्हीं कारणों से ग्रहण लग गया और मामला टलता गया। नए प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के कार्यकाल में लगातार सुनवाई को रोका नहीं जा सका, इसलिए अब फै सले की घड़ी सन्निकट है।
बाबर के समय 1526 में इस विवाद की नींव पड़ी थी। अंग्रेजों के राज में विवादित स्थल की बैरेके टिंग हुई पर रह-रहकर यह विवाद सुलगता रहा। 1949 में मूर्ति प्रकरण के बाद यह मामला कोर्ट में कभी धार्मिक तो कभी सियासी होता रहा। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद इतना गतिरोध पैदा हो गया कि समाधन की उम्मीद भी कल्पना से परे थी। पर अब जो स्थितियां निर्मित हुई हैं, उसमें तय है कि अंतिम निर्णय सामने आएगा। वैसे इस बीच फिर मध्यस्थता की एक पहल सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से हुई है, जिसमें पेशकश है कि कहीं बाहर मस्जिद के लिए जमीन मिले तो दावा छोड़ा जा सकता है। शिया वक्फ बोर्ड तो पहले ही सुप्रीम कोर्ट को मंदिर के लिए अपना छोडऩे की पहल कर चुका है। हालांकि पहले कहीं और मस्जिद के लिए जमीन देने की पेशकश को नामंजूर कर दिया गया था। पर फैसले से पहले यह सुमति विचारणीय बनती है तो सभी के लिए यह निर्णायक पहल होगी। वैसे भी एक-दूसरे की आस्था और मूल्य का सम्मान भारतीयता का चिर-परिचित सुवास है। यही वजह है कि दुनिया के तकरीबन सारे अकीदे भारत की धारा पर बेखौफ फलते-फूलते हैं। यहां विविधता बिखराव नहीं बल्कि एकता का अंग-उपांग है।