अब तक मुद्दों की तलाश

0
231

लोकसभा चुनाव के पांच चरण का मतदान हो गया है और अब सिर्फ दो चरण का मतदान बचा है, जिसमें 118 सीटों पर मतदान होना है। पर हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्तारूढ़ पार्टी अभी तक हर चरण के दौरान नए मुद्दे पर प्रचार कर रही है। सवाल है कि क्या अभी तक भाजपा को चुनाव जिताने वाला मुद्दा नहीं मिला है या जान बूझकर हर चरण के लिए नए मुद्दे खोजे जा रहे हैं? यह संभव है कि कोई केंद्रीय मुद्दा नहीं होने की वजह से हर चरण में क्षेत्र के हिसाब से मुद्दा बदले गए हों। पर क्या इनसे कामयाबी संभव है? ध्यान रहे पिछले चुनाव में एक केंद्रीय मुद्दा था। अच्छे दिन लाने का वादा था। काला धन लाना था और कथित गुजरात मॉडल पर देश भर में विकास करना था। पर इस बार के चुनाव में इन मुद्दों की चर्चा नहीं हो रही है। हैरानी की बात है कि पिछली बार प्रचार का केंद्रीय थीम रहे मुद्दों की चर्चा इस बार सत्तारूढ़ पार्टी का कोई भी नेता नहीं कर रहा है। इस बार राष्ट्रवाद के मुद्दे पर वोट मांगा गया, फिर अल्पसंगयक -बहुसंगयक का मुद्दा आया, सेना के शौर्य के मुद्दे पर वोट मांगा गया।

पाकिस्तान और आतंक वाद पर वोट मांगा गया, पिछड़ा-अति पिछड़ा के नाम पर प्रचार हुआ और अब पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत राजीव गांधी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा कर बोफोर्स का मुद्दा उठाया जा रहा है। अगर जरा बारीकी से देखें तो हर चरण के साथ मुद्दे बदलने का ट्रेंड दिखाई देगा। पहले चरण में 11 अप्रैल को मतदान हुआ था उससे करीब दो हफ्ते पहले 28 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रचार में उतरे थे। तब उन्होंने राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाया था। यह मुद्दा दूसरे और तीसरे चरण तक चलता रहा था। इसी दौरान प्रधानमंत्री ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने वाले मुद्दे भी उठाए। उन्होंने पांच अप्रैल को और इसके एक हफ्ते बाद अल्पसंगयक -बहुसंगयक का मुद्दा उठाया और राहुल गांधी ने केरल की वायनाड सीट पर लडऩे पर तंज कि या। ध्यान रहे पहले दो-तीन चरण में दक्षिण के सभी राज्यों में मतदान होना था। उत्तर भारत में भी उस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और बिहार में मुस्लिम बहुल कोशी व सीमांचल के इलाके में मतदान था। इन इलाकों में भाजपा को दो ही चीजों से उम्मीद थी। उनको लग रहा था कि या तो राष्ट्रवाद के नाम पर वोट मिलेगा या ध्रुवीकरण के नाम पर। तभी पहले तीन चरण तक इस तरह के मुद्दे जोर शोर से चले।

उसके बाद मुद्दे बदलने लगे। जैसे जैसे चुनाव उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के ऐसे इलाकों में पहुंचा, जहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बजाय जातीय अस्मिता मजबूत है, तो चुनाव का एजेंडा बदल गया। चौथे चरण के मतदान से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी ने अपने को अति पिछड़ा बताया। वे किसी मौके के इंतजार में थे और बसपा प्रमुख मायावती न उनको नकली पिछड़ा बता कर तंज किया तो उन्होंने खुद को अति पिछड़ा बताया और उस आधार पर वोट मांगा। ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि चौथे चरण का चुनाव मजबूत जातीय गोलबंदी वाले इलाकों में था। वहां मोदी को यादव और दलित के मुकाबले गैर यादव पिछड़ों को एक जुट करना था। उनको पता था कि सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद का एजेंडा वहां काम नहीं करेगा। पिछली बार भी उन्होंने इस इलाके के प्रचार में अपने को पिछड़ा और अति पिछड़ा बता कर वोट मांगा था। तभी पिछले दो चरण से प्रचार का सारा जोर जाति के ऊपर हो गया है। लालू, मुलायम, मायावती के गढ़ में लड़ाई के लिए प्रधानमंत्री मोदी खुद जातिगत राजनीति में उतरे हैं। पांचवें चरण से ठीक पहले मोदी अपनी छवि का मुद्दा ले आए हैं और इसलिए उन्होंने राहुल और प्रियंका के साथ साथ उनके पिता दिवंगत राजीव गांधी पर हमला किया है।

राजीव गांधी पर हमला करना भी अचानक नहीं हुआ है और इसके भी राजनीतिक कारण हैं। पांचवें चरण का मतदान सात राज्यों में था और आखिरी दो चरण का मतदान पांच राज्यों में है। बचे हुए दो चऱणों में जहां मतदान है वहां मतदाता बेहद जागरूक हैं और वे राष्ट्रीय मुद्दों के साथ साथ स्थानीय मुद्दों पर भी बात करते हैं। यह हकीकत है कि पिछले पांच साल में पार्टी के सांसद और विधायक कोई काम नहीं करा पाए हैं। इसलिए उनके प्रति लोगों में नाराजगी है। इस नाराजगी से होने वाला नुकसान तभी कम होगा, जब प्रत्याशी की बजाय लोग मोदी के नाम पर वोट करें। पर मुश्किल यह है कि मोदी की अपनी छवि पर राहुल गांधी ने राफेल का दाग लगाया है। सरकार के लाख चाहने के बावजूद राफेल का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में फिर से सुनवाई के लिए आ गया है। तभी बहुत सुनियोजित तरीके से प्रधानमंत्री मोदी ने राजीव गांधी को निशाना बनाया और बोफोर्स का मुद्दा ले आए। उनके बयान देने के बाद सारी पार्टी उसे सही ठहराने में लग गई। इस तरह राफेल से ध्यान हटा कर बोफोर्स पर किया गया और स्थानीय प्रत्याशी से ध्यान हटा कर मोदी पर किया गया। पर यह कितना कारगर होगा यह अभी नहीं कहा जा सकता है।

शशांक राय
(लेखक स्तंभकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here