यह बात सही है कि अब वह समय आ गया है कि भारत का इतिहास या यूं कहा जाए कि सही इतिहास के पुनर्लेखन को किया जाकर आने वाली पीढ़ी के सामने उसे सही तरीके से पेश किया जाए। इसके साथ ही आजादी के बाद से अब तक क्या-क्या चीजें छूट गईं हैं या किन-किन चीजों में तब्दीली की जाना चाहिए, उस बारे में भी हुक्मरानों को विचार करने की महती जरूरत महसूस की जा रही है। इसे विडबम्बना ही कहा जाएगा कि आल इंडिया रेडियो की विदेश प्रसारण सेवा में नेपाली भाषा को विदेशी भाषा की फेहरिस्त में रखा गया है, जबकि भारत गणराज्य के अभिन्न अंग सिक्किम की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है। जब देश आजाद हुआ था उस समय के भौगोलिक और राजनैतिक नक्शों में अनेक तब्दीलियां हो चुकी हैं, पर इसके साथ ही अनेक बातें आज भी विसंगतियों के रूप में मौजूद हैं। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि आल इंडिया रेडियो आज भी नेपाली भाषा को विदेशी भाषा ही मानता है! आज के दौडते भागते युग में देश के बारे में बच्चों और युवा होती पीढी का सामान्य ज्ञान काफी हद तक कमजोर माना जा सकता है।
देश में कितने राज्य और उनकी राजधानियों के बारे में सार फीसदी लोगों को पूरी जानकारी न हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। किस सूबे की आधिकारिक भाषा क्या है, इस बात की जानकारी युवाओं को तो छोडिए भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के आला अधिकारियों को भी नहीं है। सिक्किम भारत देश का हिस्सा है। चीन भी इस बात तो स्वीकार कर चुका है, कि सिक्किम भारत गणराज्य का ही एक अंग है। भारत गणराज्य के सूचना प्रसारण मंत्रालय और प्रसार भारती के अधीन काम करने वाला ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) इस राय से इोफाक रखता दिखाई नहीं देता है। एआईआर की विदेश प्रसारण सेवा में एआईआर को आज भी विदेशी भाषा का दर्जा दिया गया है, जबकि सिक्किम की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है। इतना ही नहीं 1992 में संविधान की आठवीं अनुसूची में नेपाली को शामिल किया जा चुका है। एआईआर की हिम्मत तो देखिए इसकी अनदेखी कर एक तरह से एआईआर द्वारा संविधान की ही उपेक्षा की जा रही है।
भारत गणराज्य के गणतंत्र की स्थापना के साथ ही 1950 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में विदेशों में कल्चर प्रोपोगंडा करने की गरज से विदेश प्रसारण सेवा का श्रीगणेश किया गया था। इस सेवा का कूटनीतिक महत्व भी होता था, इसमें विदेश प्रसारण सेवा के तहत वहां बोली जाने वाली भाषा में प्रोग्राम का प्रसारण किया जाता था। एआईआर ने वहां की भाषा के जानकारों की अलग से नियुक्ति की थी। दिलचस्प बात तो यह है कि विदेश प्रसारण सेवा में काम करने वाले अधिकारियों कर्मचारियों के वेतन भो और सेवा शर्तें भारत में काम करने वाले कर्मचारियों से एकदम अलग ही होते हैं। 50 के दशक में जिन देशों को विदेश प्रसारण सेवा के लिए चिन्हित किया था, उनमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, आस्टे्रलिया, ईस्ट और वेस्ट आफ्रीका, न्यूजीलेंड, मारीशस, ब्रिटेन, ईस्ट और वेस्ट यूरोप, नार्थ ईस्ट, ईस्ट एण्ड साउथ ईस्ट एशिया, श्रीलंका,म्यामांर, बंग्लादेश आदि शामिल थे।
एआईआर द्वारा नेपाली भाषा को विदेशी भाषा का दर्जा दिए जाने के बावजूद भी अनियमित (केजुअल) अनुवादक और उदघोषकों को भारतीय भाषा के अनुरूप भुगतान किया जा रहा है, जो समझ से परे ही है। बताते हैं कि कुछ समय पहले केजुअल अनुवादक और उदघोषकों द्वारा भुगतान लेने से इंकार कर दिया गया था। बाद में समझाईश के बाद मामला शांत हो सका था। उधर पडोसी मुल्क नेपाल जहां की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है, ने भारत के ऑल इंडिया रेडियो के इस तरह के कदम पर एआईआर के मुंह पर एक जबर्दस्त तमाचा जड दिया है। नेपाल में उपराष्ट्रपति पद की शपथ परमानंद झा द्वारा हिन्दी में लेकर एक नजीर पेश कर दी। इतना ही नहीं नेपाल सरकार ने एक असाधारण विधेयक पेश कर लोगों को चौंका दिया है। इस विधेयक में देश के महामहिम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद की शपथ मातृभाषा में लिए जाने का प्रस्ताव दिया गया था। अब सवाल यह उठता है कि 1992 में आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के 18 साल बाद भी इस मामले को लंबित कर लापरवाही क्यों बरती जा रही है। ।
लिमटी खरे
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)