आज 12 अक्तूबर है। इसी दिन डॉ. राममनोहर लोहिया और राजमाता विजयाराजे सिंधिया का जन्म दिन होता है। डॉ लोहिया अगर आज होते तो 110 साल के हो जाते और राजमाता होतीं तो यह उनका 100 वां साल होता। मेरा सौभाग्य है कि दोनों महान हस्तियों से मेरा घनिष्ट संबंध रहा। इनसे पत्रकार की तरह नहीं, मेरा संबंध शुरु हुआ एक छात्र-नेता के रुप में ! जनवरी 1961 में याने अब से 59 साल पहले उज्जैन में अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन हुआ। डॉ. लोहिया उसके मुख्य प्रेरणा-स्त्रोत थे। मैं उन दिनों क्रिश्चियन कालेज इंदौर में पढ़ता था। मैंने डाॅ. लोहिया को अपने कालेज में आमंत्रित किया। हमारे प्राचार्य डॉ. सी. डब्ल्यू. डेविड कांग्रेसी थे। उन्होंने कहा कि लोहिया तो नेहरुजी को गाली बकता है। तुमने उसे यहां कैसे बुला लिया ? मैंने कहा कि वे तो आएंगे ही और ब्रॉनसन हॉल में उनका भाषण होगा ही। आपको जो करना है, कीजिए। डेविड साहब ने उस दिन की छुट्टी ले ली और डॉ. लोहिया का भाषण मेरे कॉलेज में जमकर हुआ। तब से डॉ. लोहिया के साथ 1967 में उनकी अंत्येष्टि तक मेरा घनिष्ट संबंध रहा। 1965 में जब मैं इंडियन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में पीएच.डी. करने आया तो लोहियाजी से उनके 7, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड वाले बंगले पर अक्सर भेंट हुआ करती थी। उन्होंने मेरे हिंदी में अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ लिखने को लेकर संसद ठप्प कर दी थी। उनके असंख्य संस्मरण फिर कभी लिखूंगा। आज के दिन मैं यही कह सकता हूं कि स्वतंत्र भारत में डॉ. लोहिया जैसा प्रखर बौद्धिक, निर्भय, त्यागी और महान विपक्षी नेता कोई दूसरा नहीं हुआ। उन्हें ‘भारत रत्न’ देने की मांग करनेवाले मित्रों से मैंने कहा कि यह सरकारी सम्मान ऐसे-ऐसे लोगों को मिल चुका है कि जो लोहियाजी के पासंगभर भी नहीं हैं।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया से भी मेरा परिचय 1967 में ही हुआ। गुना से आचार्य कृपालानी ने संसद का चुनाव लड़ा। उनकी पत्नी सुचेताजी ने मुझसे कहा कि दादा (आचार्यजी) और राजमाताजी, दोनों ने कहा है कि आप चुनाव-प्रचार के लिए मेरे साथ गुना चलें। इंदौर में सारे मध्यप्रदेश के छात्र पढ़ने आते थे। मैं छात्र आंदोलनों में कई बार जेल काट चुका था। मालवा के लोग मुझे जानने लगे थे। दिल्ली में मैं सप्रू हाउस में रहता था और कृपालानीजी सामने ही केनिंग लेन में रहते थे। लगभग रोज उनसे मिलना होता था। गुना में मुझे देखकर राजमाताजी बहुत खुश हुईं। उसके बाद उनके साथ मेरे संबंध निरंतर बने रहे। वे मेरे पुराने घर (प्रेस एनक्लेव) और पीटीआई (दफ्तर) भी अपने आप आ जाया करती थीं। मेरे घर पर राम मंदिर को लेकर मुस्लिम नेताओं से कई गोपनीय भेटें भी उन्होंने की। वे मुझे कहती थीं कि मेरे लिए आप माधव (उनके बेटे) की जगह ही हैं। उनके कई संस्मरण फिर कभी। यहां इतना ही कह दूं कि भारत और पड़ौसी देशों के कई नरेशों, शाहों और बादशाहों से मेरे संपर्क रहे हैं, लेकिन जैसी सादगी, सज्जनता और आत्मीयता मैंने राजमाता में देखी, वह सचमुच दुर्लभ है। कई अन्य राज परिवारों की महिलाओं ने भी भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन राजमाता विजयाराजे ने भारत के गैर-कांग्रेसी विपक्ष को मजबूत बनाने में जो योगदान किया है, वह अप्रतिम है।
डॉ वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )