अंपायर और रेफरी के हुकुमनामे

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कसभा चुनावों की गर्मी में नेताओं के कथन और उनके, नियम सम्मत होने को लेकर बार – बार सवाल उठ खड़े हो रहे हैं। जिन्हें निपटाने के लिए कभी सत्ता पार्टी भारतीय जनता पार्टी और कभी विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय चुनाव आयोग के सामने अपनी अर्जी लगाते हैं। परंतु दोनों ही निकायों के हुकुमनामे – उनकारणों का खुलाशा नहीं करते जिनके आधार पर फैसले लिए गये। कंगारू कोर्ट में भी सज़ा पाने वाले को उसकी गलती बता कर सर को धड़ से अलग कर दिया जाता हैं ! कुछ – कुछ वैसा ही हाल के फैसलों में दिखाई पड़ता हैं। हाल का फैसला वाराणसी से बसपा-सपा गठबंधन के उम्मीदवार तेज प्रताप यादव को उम्मीदवारी का पर्चा खारिज करने को लेकर हैं। तेजप्रताप ने पहले निर्दलीय के रूप में नामांक न दाखिल किया था। तब भी चुनाव अधिकारी ने उन्हें यह नहीं बताया कि वे भारत के आम नागरिक नहीं वर्ण खास हैं !

क्योंकि वे अर्ध सैनिक बल में रह चुके हैं। इसलिए उन्हे अपने पूर्व नियोक्ता से अनापत्ति प्रमाण पत्र देना होगा, यहां एक सवाल उठता हैं कि क्या ऐसा प्रमाण पत्र जनरल वी. के . सिंह ने गाजियाबाद के चुनाव अधिकारी को दिया था? क्योंकि वे भी सेना के पूर्व अधिकारी थे! अथवा अनापत्ति प्रमाण पत्र अधिकारियों के लिए अनिवार्य नहीं है। सिर्फ सैनिकों के लिए जरूरी हैं ? सुप्रीम कोर्ट ने भी गुण-दोष के आधार पर जिलाधिकारी के आदेश को ही माना और तेज बहादुर यादव नरेंद्र मोदी के विरुद्ध चुनाव लडऩे मैं असफल कर दिये गये! वाह रे लोक तंत्र ! दूसरा मामला 21 राजनीतिक दलों ने ईवीएम वोटिंग मशीनों के शासक दल द्वारा दुरुपयोग को नियंत्रित करने हेतु – प्रत्येक लोक सभा क्षेत्र के वोटों के पचास फीसदी वीवीपेट पर्चियों के मिलान के लिए केंचुआ को निर्देश दिये जाने की मांग की थी।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के एक बूथ में यह प्रयोग किया जा सकता हैं, जैसा कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने अदालत से कहा था। अभी हाल में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी पर टिप्पणी करते हुए राहुल गांधी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि आपके पिता को उनके दरबारियों ने मिस्टर क्लीन बना दिया था पर वे भ्रष्टाचारी के रूप में गए ! इस पर जब शिकायत हुई तब भी क्लीनचिट मिल गयी। और तो और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो अपने ब्लॉग में लिखा अभिव्यक्ति की आज़ादी चुनाव आचार संहिता से कहीं ऊपर हैं, जिसका अर्थ हुआ कि चुनाव आचार संहिता सिर्फ आजम खान – नवजोत सिंह सिद्धू और प्रज्ञा ठाकुर आदि लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर नियंत्रण कर सकती हैं ! नरेंद्र मोदी पर यह रोक नहीं लागू होती !

क्योंकि वे बीजेपी प्रवक्ता राम माधव के शब्दो मैं वे किंग हैं और क हावत हैं किंग डज नो रांग केंद्रीय चुनाव आयोग के फैसलों में यह फैसले न्यायपूर्ण तो बिलकुल नहीं हैं। इन दोनों सर्वोच्च संगठनों द्वारा लोक तंत्र की आत्मा अर्थात संविधान प्रदत्त अधिकारों और दायित्वों को सरकार और उसके तंत्र के भरोसे छोड़ देना, आम नागरिकों के अधिकारों की हत्या हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह कहना कि अपील करे का अर्थ ना केवल बहुत सारा धन और समय की बर्बादी होगा। क्योंकि बात गलती की त्वरित सज़ा ही आचार संहिता का आधार हैं । यदि वह नहीं किया गया और सर्वोच्च न्यायालय ने भी आयोग की गलती नहीं सुधारा, तब वह भी अपने क र्तव्य से विमुख हो रहा हैं। सिर्फ यह कह देना की कारवाई हो गयी हैं, पर्याप्त नहीं हैं। वरन देखना यह भी होगा की क्या कारवाई से न्याय हुआ अथवा फाइल आगे भर बढ़ाई गयी हैं। सर्वोच न्यायालय यदि सरकारी तंत्र के कार्यो की समीक्षा नहीं करेगा तो दूसरा कौन सा निकाय हैं, जो यह कर सकता हैं।

विजय तिवारी
(लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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