जब मनुष्य भक्ति की चरम सीमा पर पहुंच जाता है तो प्रभु की उसकी मन्नतें मांगने के लिए विवश होना पड़ता है। एक क्षण वह आता है जब व्यति अपनी भति व आस्था के बल पर परमात्मा के निकट पहुंच जाता है। ऐसे व्यति के बारे में शास्त्रों ने अलग पहचान बताई। ऐसा मनुष्य को प्राणी मात्र में परमात्मा का स्वरूप ही दिखाई देता है। ऐसा भत केवल लोककल्याण का ही चिंतन करता है। उसे सांसारिक मोह माया से कोई लोभ नहीं होता है। किसी ने सच कहा है कि भत वश में भगवान होता है। इस बारे में एक कथा प्रचलित है। कार्तिक महीने में एक बुढिय़ा माई तुलसी जी को सींचती और कहती कि हे तुलसी माता! सत की दाता मैं तेरा बिडला सीचती हूं। मुझे बहु दे, पीतांबर की धोती दे, मीठा-मीठा गास दे, बैकुंठा में वास दे, चटक की चाल दे, पटक की मौत दे, चंदन का काठ दे, रानी सा राज दे, दाल-भात का भोजन दे, ग्यारस की मौत दे, कृष्ण जी का कन्धा दे। जब तुलसी माता यह सुनकर सूखने लगीं तो भगवान ने कारण पूछा तो तुलसी माता ने कहा कि एक बुढिय़ा रोज आती है और यही बात कह जाती है।
मैं सब बात तो पूरा कर दूंगी लेकिन कृष्ण का कन्धा कहां से लाऊंगी। तो भगवान बोले, जब वो मरेगी तो मैं अपने आप कंधा दे आऊंगा। तू बुढिय़ा माई से कह देना। जब बुढिया माई मर गई। सब लोग आ गये। जब माई को ले जाने लगे तो वह किसी से न उठी। तब भगवान एक बारह बरस के बालक का रूप धारण करके आये। बालक ने कहा मैं कान में एक बात कहूंगा तो बुढिय़ा माई उठ जाएगी। बालक ने कान में कहा, बुढिय़ा माई मन की निकाल ले, पीताम्बर की धोती ले, मीठा.मीठा गास ले, बेकुंठा का वास ले,चटक की चाल ले, पटक की मौत ले, कृष्ण जी का कंधा ले। यह सुनकर बुढिय़ा माई हल्की हो गई। भगवान ने कन्धा दिया और बुढिय़ा माई को मुति मिल गई। इस कथा से यही सार मिलता है कि मनुष्य अपने जीवन सांसारिक मोहमाया से दूर करते हुए प्रभु की सेवा में व्यतीत करना चाहिए जिससे उसके शुभ कर्म के चलते उसकी मुति सरलता से हो सके स्वयं प्रभु ही उसकी मुति करने की पहल करे।
-एम. रिजवी मैराज