जवाब खोजने में जुटी दुनिया

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दूसरी लहर लौट गई है लेकिन परेशान करने वाले सवाल छोड़ गई है। यह राक्षसी वायरस कहां से आया? किसी जानवर से पैदा हुआ या प्रयोगशाला में बना? मनुष्य तक प्राकृतिक रूप से पहुंचा या किसी वैज्ञानिक शोध में हुई चूक के कारण? यह जैविक युद्ध का हिस्सा तो नहीं है? दुनिया पर संदेह के बादल छाये हैं।

अमेरिका में ट्रम्प के जाते ही विज्ञान में समझदारी और स्वस्थ संशय वापस आ गया। जो आला वैज्ञानिक वायरस के स्रोत पर बात तक करने तैयार नहीं थे, वे अब सवाल पूछ रहे हैं। अगर वायरस किसी जानवर से पैदा हुआ तो 18 महीनों में कोई जानवर इसके प्रारंभिक या माध्यमिक भंडार के रूप में क्यों नहीं उभरा? चीन के वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (डब्ल्यूआईवी) ने दिसंबर 2019 में अपने सारे आंकड़े सील क्यों कर दिए थे?

यह क्यों नहीं पता चला कि चीनी वैज्ञानिक ‘गेन ऑफ फंक्शन’ (जीओएफ) अनुसंधान कर रहे हैं, जिसमें मारक वायरसों के जीन बदलने के प्रयोग हो रहे हैं? डब्ल्यूएचओ की जांच कमेटी के लिए अमेरिका ने जिन सदस्यों के नाम प्रस्तावित किए थे उनमें सिर्फ पीटर डास्क को छोड़ सारे नाम चीन ने खारिज क्यों कर दिए थे?

डास्क न्यूयॉर्क के इकोहेल्थ एलायंस से जुड़े हैं, जिसने डब्ल्यूआईवी को ‘जीओएफ’ अनुसंधान के लिए पैसे दिए थे। वुहान प्रयोगशाला की ‘बैट लेडी’ शी झेंग्ली सोच-विचार करके चुनिंदा जानकारी सार्वजनिक करने लगी थीं। चीन क्या छिपाना चाह रहा था? हमें वैज्ञानिकों, गणितज्ञों, डेटा विश्लेषकों, साई-फाई लेखकों और पत्रकारों की उस बहुराष्ट्रीय ‘सेना’ का आभारी होना चाहिए जो यह पता लगाने के लिए एकजुट हुई कि वायरस आया कहां से। ये लोग ‘ड्रास्टिक’ (डिसेंट्रलाइज्ड रैडिकल ऑटोनोमस सर्च टीम इन्वेस्टिगेटिंग कोविड-19) नामक एक अव्यवस्थित संगठन का हिस्से हैं।

इसका गठन बैंक ऑफ न्यूज़ीलैंड में डेटा साइंटिस्ट गाइल्स डेमैनुफ़ ने किया। इसमें कुछ जाने-माने भारतीय भी शामिल हैं। जैसे डॉ. मोनाली राहलकर और राहुल बाहुलिकर। यह वैज्ञानिक दंपती पुणे के बायोटेक्नोलॉजी विभाग के आगरकर रिसर्च इंस्टीट्यूट से जुड़ा है, जिसने उस महत्वपूर्ण तथ्य को स्थापित किया जिसके आधार पर यह पता चला कि शी झेंग्ली ने अपनी प्रयोगशाला में जिस वायरस को बर्फ में जमा रखा था

वह कोविड-19 से 96.2% मिलता-जुलता था और उसी वायरस जैसा था जिसने 2012 में उन छह मजदूरों को बीमार कर दिया था जो यून्नान प्रांत में मोजियांग तांबा खानों में चमगादड़ों का बीट साफ करने गए थे। यह वैज्ञानिक जानकारी छिपाने की घृणित कोशिश थी क्योंकि चमगादड़ कोरोनावायरस से मनुष्य के सीधे (बिना किसी माध्यम के) संक्रमित होने की घटना पहली बार सामने आई थी।

चीनियों ने इसे दुनिया से क्यों छिपाया? क्या यह धोखाधड़ी थी? क्या वुहान के वैज्ञानिकों ने इस वायरस पर कोई और तेज प्रोटीन या जीन संबंधी अनुसंधान किया था ताकि यह मनुष्य के लिए अधिक संक्रामक और मारक बने? ऐसा लगता है कि उन्होंने यह कोशिश की।

‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के दो पूर्व विज्ञान संपादकों निकोलस वेड और डोनाल्ड मैकनील जूनियर तथा प्रख्यात लेखिका कैथरीन एबान के लेख इस विषय पर जरूर पढ़ने चाहिए। वेड ने रहस्योद्घाटन किया है कि इस वायरस का एक विचित्र जीनोमिक गुण इसे अधिक संक्रामक बनाता है, और यह गुण चमगादड़ वाले कोरोनावायरस में नहीं था। क्या इसे प्रयोगशाला में विकसित किया गया? वेड ने 1975 में नोबल पुरस्कार पाने वाले और ‘कैलटेक’ के सम्मानित जीव विज्ञानी डेविड बाल्टीमोर के साथ यह घोषणा करके हलचल मचा दी कि यह ‘स्मोकिंग गन’ उपरोक्त ‘जीओएफ’ अनुसंधान का फल है।

अगर आप एबान और वेड को पढ़ेंगे और रहलकर को ध्यान से सुनेंगे तो एक मुमकिन तस्वीर उभरेगी। वुहान प्रयोगशाला 2012 के मोजियांग खान वाले वायरस पर 2015 तक शोध करती रही और फिर चुप्पी साध ली। उसने एक नया वायरस बना लिया था और ‘मनुष्य सरीखे’ चूहे पर उसका परीक्षण भी कर लिया था। यह कहीं ज्यादा संक्रामक था। ये चूहे अमेरिका की नॉर्थ कैरोलीना यूनिवर्सिटी की प्रयोगशाला से आए थे। यहां ‘जीओएफ’ अनुसंधान भी होता है। इसके बॉस प्रो. राल्फ बारिक ने शी झेंग्ली को इस अनुसंधान का प्रशिक्षण दिया था।

इन लेखों से कई खुलासे होते हैं। इनमें प्रमुख दो खुलासे हैं- 1. पीटर डास्क ने महामारी के शुरू में ही उस पत्र पर न केवल दस्तखत किए बल्कि ‘द लेंसेट’ को भेजा भी, जिसमें प्रयोगशाला से लीक होने की बात का खंडन किया गया था। एबान के लेख में उनके और बारिक के बीच ई-मेल पर हुई अविश्वासनीय वार्ता उद्धृत की गई है, जिसमें वे लिखते हैं कि वे दोनों उस पत्र पर दस्तखत न करें क्योंकि इससे यह जाहिर होगा कि उनमें मतभेद हैं।

2. जैसे ही वुहान में पहले मामले सामने आए, चीनी सेना ने अपने मुख्य वायरस विज्ञानी मेजर चेन वाइ को टीम के साथ भेजा कि वे डब्ल्यूआईवी को अपने नियंत्रण में ले लें।

इस कहानी में अभी बहुत कुछ सामने आने वाला है। लेकिन सबसे सकारात्मक बात यह है कि विज्ञान, लोकतंत्र, जिज्ञासा, आदि ने तमाम सत्ता प्रतिष्ठानों और सरहदों की परवाह न करते हुए मिलकर काम किया। इसने न्यूजीलैंड से लेकर फ्रांस, अमेरिका और बेशक भारत तक, दुनियाभर के ज़हीन दिमागों को एकजुट किया कि वे उस सुपर पावर को चुनौती दे सकें, जो एक भयावह रहस्य को छिपाने पर आमादा था। दूसरा सुपर पावर खुद ही इतना बंटा हुआ था कि वह इसका खुलासा नहीं कर सकता था। और अंत में, यह एक प्रमाण है कि इंटरनेट हमेशा के लिए एक ताकत के रूप में स्थापित हो चुका है।

शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन- चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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