महामारी के बहाने मजदूरों पर मार

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इजराइली लेखक और विचारक युआल नोवा हरारी ने 20 मार्च को, जिस समय भारत में लॉकडाउन शुरू नहीं हुआ था, ब्रिटेन के अखबार फाइनेंशियल टाइम्स में एक लेख लिखा था, जिसमें इजराइल को लेकर उन्होंने दो मिसालें दी थीं और उसके जरिए यह बताया था कि कैसे महामारी ऐतिहासिक प्रक्रिया को तेज कर देती है। उन्होंने लिखा था कि सामान्य दिनों में जिस फैसले को लागू करने में महीनों या सालों लग जाते हैं, उन्हें महामारी के समय चुटकियों में लागू कर दिया जाता है। जैसे इजराइल में बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार ने कोरोना वायरस के मरीजों का पता लगाने के लिए सर्विलेंस तकनीक के इस्तेमाल का आदेश दे दिया, जिसका इस्तेमाल अब तक आतंकवाद से लड़ने में किया जाता था। इसी तरह हरारी ने लिखा है कि 1948 में युद्ध के समय जो आपातकालीन नियम इजराइल में लागू किए गए थे और जिन्हें युद्ध के बाद हटा लिया जाना था, वे नियम अभी तक लागू हैं।

कहने का मतलब यह है कि महामारी, आपदा या आपातकाल सरकारों के हाथ खोल देती है। ऐसी स्थिति में ऐतिहासिक प्रक्रिया तेज हो जाती है। जैसे 130 साल के लंबे संघर्ष के बाद दुनिया के मजदूरों ने यह अधिकार हासिल किया था कि उनसे दिन में आठ घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जाएगा। लेकिन भारत की राज्य सरकारों ने चुटकियों में इसे खत्म कर दिया। भाजपा के शासन वाले कई राज्यों ने यह ऐलान कर दिया कि मजदूरों से आठ की बजाय 12 घंटे काम कराया जा सकता है।

सोचें, 130 साल की लड़ाई से हासिल अधिकार, जो पिछले कई दशकों से मजदूरों को हासिल था वह मिनटों में खत्म हो गया। कहा जा रहा है कि यह बदलाव सिर्फ तीन महीने के लिए किया गया है पर सबको पता है कि न तो कोरोना वायरस तीन महीने में खत्म होने जा रहा है और न आपातकालीन व्यवस्थाएं तीन महीने में खत्म होंगी। यह व्यवस्था लंबी चलेगी और सरकार ने फैक्टरी के मालिकों के हाथ में मजदूरों के शोषण का एक बड़ा कानून दे दिया।

भारतीय जनता पार्टी के शासन वाले तीन राज्यों- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात ने श्रम कानून में बदलाव का ऐलान कर दिया है। भाजपा के शासन वाले दो और राज्यों गोवा और कर्नाटक में भी श्रम कानून बदला जा रहा है और ओड़िशा की नवीन पटनायक सरकार ने भी इनमें बदलाव का फैसला किया है। अभी तक कांग्रेस शासित किसी राज्य में ऐसे बदलाव की सूचना नहीं है पर राज्यों में श्रम कानून बदले जाने के खिलाफ आठ पार्टियों ने राष्ट्रपति को चिट्टी लिखी, उसमें कांग्रेस नहीं है। देश की सभी छोटी-बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिख कर श्रम कानूनों में बदलाव पर चिंता जाहिर की है और इसे रोकने की मांग की है। कांग्रेस ने अभी ऐसी कोई मांग नहीं की है इसलिए अंदाजा लगाया जा रहा है कि देर-सबेर उन राज्यों में भी कोरोना वायरस की इमरजेंसी के बहाने श्रम कानूनों में बदलाव कर दिया जाएगा।

सोचें, बरसों से दूसरी पीढ़ी के आर्थिक बदलावों की मांग हो रही थी और निवेश बढ़ाने, औद्योगिक व कारोबारी गतिविधियों में तेजी लाने के लिए श्रम कानूनों में बदलाव की मांग सबसे ज्यादा हो रही थी। पर कोई भी सरकार श्रम कानूनों में बदलाव की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। अब कोरोना वायरस की इमरजेंसी के बहाने एक झटके में कानून बदल दिए गए। उत्तर प्रदेश की सरकार ने ऐसा भारी बदलाव किया है कि एक-एक कानूनों को बदलने की बजाय उसने एक निगेटिव लिस्ट जारी कर दी है और कहा कि तीन बातों को छोड़ कर समूचा श्रम कानून स्थगित रहेगा। इसका मकसद उद्योगपतियों और कारोबारियों को राहत पहुंचाना और बाहरी निवेश आकर्षित करना है। सरकारें यह काम मजदूरों के हितों की कीमत पर कर रही हैं।

गुजरात ने अध्यादेश के जरिए श्रम कानूनों में बदलाव का फैसला किया और यह भी कहा कि यह बदलाव अगले 12 सौ दिन यानी करीब साढ़े तीन साल तक लागू रहेगा। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गोवा या कर्नाटक और ओड़िशा जो बदलाव कर रहे हैं उसके दो पहलू हैं। एक तो निवेश को बढ़ावा देने और कारोबारियों-उद्यमियों को राहत पहुंचाने का है और दूसरा मजदूरों के शोषण को बढ़ावा देने का है। इसके पहले पहलू से किसी को शिकायत नहीं हो सकती है। अगर सरकार कानून बदल कर यह प्रावधान करने जा रही है कि फैक्टरी लगाने या कारोबार शुरू करने के लिए सब कुछ ऑनलाइन होगा और सरकार एक न्यूनतम निश्चित अवधि में इसकी मंजूरी दे देगी या सरकार के अलग अलग विभागों के इंस्पेक्टर फैक्टरियों में छापा मारने नहीं जाएंगे तो इसका स्वागत होना चाहिए। कारोबारियों, उद्योगपतियों को लालफीताशाही के चंगुल से बचाना चाहिए। अभी नया कारोबार शुरू करने के लिए 36 किस्म की मंजूरी लेनी होती है। अगर कोरोना वायरस के बहाने ही इसे बदला जा रहा है तो यह अच्छी बात है।

पर सरकार की इस बात का समर्थन नहीं किया जा सकता कि वह श्रम कानूनों में बदलाव करके कंपनियों को यह अधिकार दे कि वे हायर एंड फायर की नीति अपनाएं। जब जितने समय के लिए चाहें मजदूर या कामगार रखें और जब चाहें तब उन्हें निकाल दें। इस बात की भी इजाजत नहीं दी जा सकती कि सरकारें मजदूरों के संगठनों से सलाह मशविरा किए बगैर उनके काम के घंटे बढ़ाएं और ओवरटाइम की अवधि बढ़ा दें। इससे अंततः उद्योगपतियों के मजदूरों का शोषण करने का अधिकार मिलेगा। किसी भी सभ्य समाज में या लोकतांत्रिक देश में इजाजत नहीं दी जा सकती कि महामारी का फायदा उठा कर मजदूरों पर मार की जाए। सरकारों को यह बात समझनी चाहिए और आनन-फानन में श्रम कानूनों में बदलाव की होड़ बंद करनी चाहिए।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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