महिलाओं को घर वापस लौटने का संदेश साफ शब्दों में दिया गया था। नवंबर के बाद हजारों किसान राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग के लिए आंदोलन कर रहे हैं। जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने वकीलों से कहा कि वे बुजर्गों और महिलाओं को आंदोलन स्थल से हटने के लिए समझाएं। इसके जवाब में पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश की महिलाओं ने मंच से एक स्वर में इनकार कर दिया था।
गाजीपुर में प्रदर्शनस्थल पर तीन माह से डेरा डाले बैठी रामपुर, उत्तरप्रदेश की 74 वर्षीय जसबीर कौर कहती हैं, जब हमने सुना कि सरकार महिलाओं से वापस जाने के लिए कह रही तो हमें धक्का लगा था। वे इस बात से भी आहत हैं कि महिलाओं को केवल लोगों की देखभाल करने वाला मान लिया गया है। कौर जैसी महिलाओं द्वारा ऐसे सवाल बहुत कम उठाए जाते हैं। खेती- किसानी में उनकी भूमिका की लंबे समय से अनदेखी हो रही है। किसानों का कहना है, कृषि कानूनों के कारण वे निजी कंपनियों की मर्जी के अधीन हो जाएंगे।
पंजाब किसान यूनियन की सदस्य जसबीर कौर नाट कहती हैं, महिलाओं को किसान नहीं माना जाता है। किसान आंदोलन से पहले कुछ महिलाओं ने तो घर से बाहर परदे के बिना कदम नहीं रखा था। भारत में किसानी का शक्तिशाली पुरुष प्रतीक माने जाने वाले ट्रेक्टर पर सवार होकर कुछ महिलाएं धरना स्थल पर पहुंची हैं। नाट कहती हैं, यहां महिलाएं ही महिलाओं में बदलाव ला रही हैं। वे किसान के रूप में अपनी पहचान पर दावा जता रही हैं। महिला अधिकार एक्टिविस्ट सुदेश गोयत बताती हैं, टिकरी में आंदोलन की शुरुआत में हरियाणा से आई वे पहली महिला थीं। जब अदालत ने महिलाओं से वापस जाने के लिए कहा तो बड़ी संख्या में उनका आना शुरू हो गया। वे अपने परिवारों, दूसरी महिलाओं के साथ आईं और अकेले भी पहुंचीं हैं। यह किसी अचरज से कम नहीं है।
केवल 13 प्रतिशत के पास है जमीन
भारत में खेती की रीढ़ समझी जाने वाली महिलाएं कॉर्पोरेट शोषण के सामने कमजोर पड़ सकती हैं। ऑक्सफेम इंडिया के अनुसार 85% ग्रामीण महिलाएं खेती से जुड़ी हैं पर केवल 13 % के पास अपनी जमीन है।
नीलांजना भौमिक
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)