खेतों में भी दम दिखा रही हैं महिलाएं

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कामकाजी महिलाओं की बात होते ही हमारे मन में टेंपो, बसों और ट्रेनों में रोज दफ्तर जाने वाली महिलाओं की छवि उभरती है। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि देश में खेतों में करोड़ों महिला किसान काम करती हैं। भारत में एक पुरुष साल भर में करीब 1800 घंटे खेती का काम करता है, जबकि महिलाएं यही काम 3000 घंटे करती हैं।

कृषि जनगणना के अनुसार 73.2 फीसद ग्रामीण महिलाएं कृषि गतिविधियों में संलग्न हैं, लेकिन जमीन का मालिकाना हक केवल 8 फीसद महिलाओं के पास है। भारतीय खेतों में महिलाएं प्रतिदिन करीब 9 घंटे काम करती हैं। घर का काम देखने, बच्चे संभालने और पशुओं की देखभाल करने का वक्त इससे इतर है। दुनिया भर में कृषि के क्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं का 50 प्रतिशत से ज्यादा योगदान है। कुछेक विकसित देशों में तो यह 70 से 80 प्रतिशत भी है।

एक रिसर्च के अनुसार बिहार, नगालैंड, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में महिलाओं की सबसे ज्यादा भागीदारी खेती में ही होती है। हिमालय क्षेत्र में एक ग्रामीण महिला प्रति वर्ष औसतन 3485 घंटे काम करती है, तो पुरुष औसतन 1212 घंटे। इतना ही नहीं, कृषि कार्यों के साथ ही महिलाएं मछली पालन और पशुपालन में भी अपना योगदान दे रही हैं। महिलाओं की खेती में बड़ी भूमिका को देखते हुए भारत में 15 अक्टूबर को महिला किसान दिवस मनाया जाता है।

मैसूर की छाया नाचाप्पा को कर्नाटक की ‘बी-क्वीन’ बुलाते हैं। कर्नाटक के कुर्ग जिले की रहने वाली छाया पिता की अकेली संतान हैं। कम उम्र में हुई शादी चल नहीं पाई। लिहाजा वे पिता के घर लौट आईं। लेकिन नियति ने उनके पिता को उनसे छीन लिया। साल 2007 में छाया ने शहद की ऑर्गेनिक फार्मिंग और प्रॉसेसिंग का काम शुरू किया। धीरे-धीरे वे आदिवासी कबीलों और किसानों से जुड़ गईं, जो उन्हें मधुमखी के छत्ते बेचने लगे। गांव के ही कुछ अनपढ़ नौजवानों को छाया ने ट्रेनिंग दी। इससे गांव के भी 600 लोगों को रोजगार मिला। छाया नाचाप्पा अब देश के अलग-अलग हिस्सों से शहद खरीदकर उसे प्रॉसेस करती और फिर बेचती हैं। वह पूरे देश में सबसे ज्यादा शहद बेचने वालों में शामिल हैं। उनका सालाना टर्नओवर करोड़ों में है।

वहीं बात बिहार की करें तो कैमूर जिले में 1 लाख 60 हजार घरेलू महिलाएं खेती से जुड़ी हैं। वहां के मोहनपुर गांव की ममता कुमारी ने जीविका योजना से 50000 रुपए कर्ज लिए और नर्सरी तैयार की। अब उनकी नर्सरी में 23 हजार फलदार और लकड़ी देने वाले पौधे हैं। वन विभाग को पौधे बेचकर ममता काफी मुनाफा कमा रही हैं। कैमूर के ही जैतपुर गांव की गीता देवी आज छोटे से तालाब में मछली पालन कर रही हैं। 50 साल की गीता ने भी जीविका योजना के तहत कर्ज लेकर मछली पालन का काम शुरू किया है।

झारखंड के गुमला की रहने वाली क्रांति देवी भी क्रांति लाने में पीछे नहीं हैं। वे सिर्फ आठवीं पास हैं। अपनी माली हालत सुधारने के लिए उन्होंने परंपरागत खेती छोड़कर वैज्ञानिक तरीके से खेती करने का फैसला लिया। क्रांति देवी ने विकास भारती में कृषि प्रशिक्षण लिया और खेती करनी शुरू की। क्रांति न सिर्फ खुद वैज्ञानिक खेती कर रही हैं, बल्कि उन्होंने गांव की 52 महिलाओं को भी ऐसा करने के लिए तैयार किया है।

इसी तरह बिहार के मुजफ्फरपुर की रहने वाली आशा देवी ने जिले की 7026 महिलाओं को स्वयं सहायता समूह से जोड़कर आत्मनिर्भर बनाने का काम किया है। गांव को खुले में शौच से मुक्त करने के लिए जागरूकता फैलाने से लेकर अपने पतियों को शराब सेवन से मुक्त कराने का अभियान चलाया। बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे जुटाने से लेकर बैंक खाते खोलने के सारे काम आशा देवी के नेतृत्व में वहां की महिलाएं कर रही हैं।

छाया, आशा या क्रांति अकेली नहीं हैं। इन जैसी सैकड़ों महिलाएं आज खेती से कमाई कर रही हैं। ये महिलाएं कल तक मजूदरी करती थीं, पर आज उनकी पहचान सफल किसान के रूप में है। यह नए भारत में महिलाओं की कामयाबी की नई कहानी है।

शिवानी त्रिवेदी
(लेखिका स्तंभकार और पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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