पिछले महीने अंटार्कटिका में दुनिया का सबसे बड़ा आइसबर्ग टूट गया। साइज में यह दिल्ली से भी 3 गुना बड़ा था। इसी महीने वैज्ञानिकों ने चेतावनी जारी की है कि अंटार्कटिका ग्लेशियर की रक्षा करने वाला 180 लाख करोड़ टन वजनी पाइन आइसलैंड ग्लेशियर भी अगले 20 सालों में टूटकर अंटार्कटिका से अलग हो जाएगा। अगर ऐसे ही टूट-फूट जारी रही तो धरती पर तबाही आनी तय है। अंटार्कटिका में जो आइसबर्ग पिछले महीने टूटा, उसका नाम ए-76 है। यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने बताया है कि आइसबर्ग ए-76 रोने आइस शेल्फ के पश्चिमी हिस्से से टूटा और अब वेडेल सागर में तैर रहा है। अंटार्कटिका के पश्चिमी हिस्से में जो पाइन आइसलैंड है, और जो अंटार्कटिका की हिफाजत करता है, वह भी पिछले कई सालों से लगातार ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से पिघलता जा रहा है। यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंग्टन की रिपोर्ट बताती है कि 2017 से 2020 के बीच पाइन आइसलैंड के किनारे लगातार टूटकर अमुंडसेन सागर में गिर रहे हैं।
अंटार्कटिका में इससे पहले इसी साल के मार्च में तकरीबन ग्रेटर लंदन जितना बड़ा एक आइसबर्ग ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे स्टेशन के पास अलग हो गया था। यह घटना ब्रिटेन के वहां बने हैली रिसर्च स्टेशन से महज 20 किमी दूर हुई थी। ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के मुताबिक 26 फरवरी की सुबह अंटार्कटिका की सतह पर दरार आ गई थी, फिर वह तैरते हुए बर्फ की चट्टान से अलग हो गया। इसके बाद ही विशालकाय हिमखंड का निर्माण हुआ। पोस्ट डैम इंस्टिट्यूट फॉर लाइमेट इपैट रिसर्च का कहना है कि पिछले 100 वर्षों में दुनिया के समुद्र तल में 35 फीसदी की बढ़ोतरी ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से हुई है और यह सिलसिला जारी है। पृथ्वी पर इस समय करीब दो लाख ग्लेशियर हैं, जो प्राचीन काल से बर्फ का एक विशाल भंडार बने हुए हैं। हिमालय के ग्लेशियर आसपास की घाटियों में रहने वाले 25 करोड़ लोगों को उन नदियों का पानी देते हैं, जो आगे जाकर करीब 165 करोड़ लोगों के लिए भोजन, ऊर्जा और कमाई का जरिया बनती हैं।
आईपीसीसी की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि एशिया के ऊंचे पर्वतों के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ खो सकते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर पूरी दुनिया के ग्लेशियर पिघल गए तो पृथ्वी का तापमान लगभग 60 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा। इसका दूसरा परिणाम यह होगा कि दुनिया में शुद्ध पीने के पानी का भीषण संकट उत्पन्न हो जाएगा। पीने के पानी का स्टॉक खत्म हो जाने से इंसानों को उसके लिए संघर्ष करना पड़ेगा, जो कहीं-कहीं कमोबेश शुरू भी हो चुका है। नेचर में प्रकाशित एक स्टडी के मुताबिक वर्ष 1980 के बाद से समुद्र का जलस्तर औसतन 9 इंच बढ़ गया है। इसका लगभग एक चौथाई हिस्सा ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ की चादरों और ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से हुआ है। अंटार्कटिका में जितनी बर्फ मौजूद है, अगर वह पिघल जाए तो हमारे समुद्रों का जलस्तर 200 फुट तक बढ़ सकता है। इसकी बड़ी वजह है ग्लोबल वॉर्मिंग, जिससे आइसबर्ग पिघलते हैं और फिर टूटकर समुद्र में गिर जाते हैं।
स्थिति का संभलना तभी संभव है, जब इंसान ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने में पूरी तरह कामयाब हो जाए और दुनिया के तापमान की बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित कर दिया जाए। वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों, जैसे कार्बन डाइऑसाइड और क्लोरोफ्लोरोकार्बन के बढऩे से पृथ्वी के औसत तापमान में होने वाली वृद्धि को ही ग्लोबल वॉर्मिंग कहा जाता है। इसकी वजह से जलवायु परिवर्तन भी होता है। इस समय दुनिया के सभी देश इस बात पर सहमत हैं कि कार्बन उत्सर्जन में कमी आनी चाहिए। वे इसके लिए खुद को प्रतिबद्ध भी बताते हैं, लेकिन इनकी प्रतिबद्धता की सचाई टूटते-पिघलते ग्लेशियरों में देखी जा सकती है। तेजी से पिघलते ग्लेशियरों और टूटते आइस सेल्फ पृथ्वी के बिगड़ते स्वास्थ्य का एक बहुत बड़ा सबूत हैं। समय पर इसका इलाज सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि दुनिया इस विषय को सिर्फ सेमिनार और गोष्ठियों तक सीमित न रखे। यह आम लोगों की चिंता में शुमार होना चाहिए।
रंजना मिश्रा
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)