क्या हम पागल हैं, जो अपने देश को आज राष्ट्रीय शंकालु देश कह रहे हैं? गूगल पर यह वर्णन नहीं मिलेगा। यह चीन और पाकिस्तान जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा देशों (नेशनल सिक्यूरिटी स्टेट) के समान नहीं है, जहां पर सेना और दल न केवल क्षेत्रीय सुरक्षा करते हैं, बल्कि देश व लोगों की वैचारिक सीमाओं की भी पहरेदारी करते हैं। यह स्थापित धारणा है। राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य शंकालु हों तो बात समझ में आती है। लेकिन, लोकतांत्रिक संस्थानों वाले संवैधानिक गणराज्य में ऐसा क्यों? पिछले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की भारी जीत के बाद मैंने एक आलेख लिखा था कि चुनाव सुरक्षा के मुद्दे पर केंद्रित भले रहें, लेकिन मोदी भारत को राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य में नहीं बदलने देंगे। हम जानते हैं कि इसका पाकिस्तान पर क्या असर हुआ? यहां दो सवाल पैदा होते हैं: क्या बाहरी खतरे की आशंका से जूझ रहा देश राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य में नहीं बदल जाता? दूसरा, क्या भारत कुछ ऐसा बनने जा रहा है, जो हमें अब तक मालूम नहीं? यानी राष्ट्रीय शंकालु राज्य? यह कहना गलत होगा कि मोदी सरकार आलोचना और आलोचकों से नफरत करने के मामले में विशिष्ट है। दशकों से ऐसी सरकार तलाशना मुश्किल रहा है, जिसे आलोचना पसंद हो या जिसने आलोचना पर तीखी प्रतिक्रिया न की हो। इंदिरा गांधी ने उन्हें सीआईए के एजेंट, राजीव गांधी ने विदेशी हाथ, वाम दलों ने कॉरपोरेट दलाल तो आप और अन्ना आंदोलन ने आलोचकों को भ्रष्ट बताया। सोशल मीडिया के आने से आलोचकों को सार्वजनिक रूप से नीचा दिखाने की प्रवृत्ति ने गति पकड़ी।
यह कहना भी गलत होगा कि सिर्फ इस सरकार ने ही राष्ट्रीय सुरक्षा एक्ट (एनएसए) और गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम एक्ट (यूएपीए) अथवा विदेशी दान नियमन एक्ट (एफसीआरए) जैसे कानूनों का इस्तेमाल किया है। ये सभी कानून पूर्व में कांग्रेस सरकारों के दौर में बने और मजबूत हुए। इनका उपयोग-दुरुपयोग सबने किया। यही बात निगरानी पर भी लागू होती है। मोदी सरकार निगरानी के क्षेत्र में जिस मशीनरी व तकनीक का इस्तेमाल कर रही है वह यूपीए की देन है। अमेरिका में 9/11 और भारत में 26/11 के हमलों के बाद विभिन्न एजेंसियों को ये अधिकार सौंपे गए। इनमें एनटीआरओ भी शामिल है। उसी दौर में गृह व रक्षा मंत्रालय से इतर खुफिया ब्यूरो और रॉ को फोन टैपिंग का अधिकार दिया गया और वित्त मंत्रालय इसका प्रमुख केंद्र बना। राडिया टेप याद करें। सार्वजनिक बहस में रहने वाले हम जैसे लोग इंदिरा गांधी के दौर से ही आलोचना के प्रति सरकार की असहिष्णुता झेलते आए हैं। जनवरी 1984 में जब मैंने तमिल टाइगर्स के प्रशिक्षण शिविरों की खबर लिखी, तब सरकार बेहद नाराज हुई और इंडिया टुडे (जहां मैं उस समय काम करता था) को देश विरोधी पत्रिका करार दिया। एक वर्ष पहले जब मैंने इस पत्रिका में असम के नेल्ली नरसंहार की एक रपट लिखी थी, तब भी यही कहा गया था क्योंकि उस वक्त दिल्ली में निर्गुट शिखर बैठक चल रही थी।
मैंने सरकार, राजनीति और सार्वजनिक बहस में विभिन्न लोगों से पूछा कि क्या हालात तब से अलग हैं तो जवाब मिला कि पहले आपको पता होता था कि सत्ता प्रतिष्ठान में कौन कुछ समय के लिए आपसे बातचीत बंद कर देगा या फिर शायद शिकायत करेगा। फिर सन 2010 के बाद का दौर आया जब अन्ना आंदोलन के समय सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा किया जाने लगा। इसके बाद बहिष्कार और पहुंच रोकने की घटनाएं हुईं। परंतु यह चिंता तब भी नहीं थी कि सरकार आपके खिलाफ मुकदमे करेगी। अब हालात बदल गए हैं। आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह से पूछिए। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना में कुछ बयान दिए और उन पर देशद्रोह का आरोप लगा दिया गया। एक लोकतांत्रिक देश में ऐसे मामले में आप अदालत के सिवा कहा जाएंगे? अदालत अपना वक्त लेगी। एक तो इसलिए कि यह पूरी प्रक्रिया अपने आप में दंड है और दूसरा यह कि एक हद तक वे भी सब पर शक करने की मानसिकता से ग्रस्त हैं। इसका परिणाम यह कि निर्दोष सिद्ध होने तक आप एक तरह से दंडित रहते हैं।
देखिए कैसे सीबीआई द्वारा प्रमाण न होने की बात कहने के बावजूद इस बात पर जोर है कि अरुण शौरी पर वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के विनिवेश के मामले में भ्रष्टाचार का मुकदमा चले। सब पर शक करो और सब को ठीक करो। यह सोच सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष पर है और नीचे तक फैल रही है। यह केवल भाजपा तक सीमित नहीं है। यही कारण है कि महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे अपने आलोचकों के खिलाफ हरसंभव कानून का प्रयोग कर रहे हैं। आंध्र में वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी अपने पूर्ववर्तियों और न्यायपालिका के कुछ लोगों के खिलाफ कदम उठाते हैं और राजस्थान में अशोक गहलोत ने तो अपनी ही पार्टी के असंतुष्टों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगा दिया। लोग चिंतित हैं कि यह किसी के साथ भी हो सकता है। किसी को भी, कहीं भी, किसी भी मामले में फंसाया जा सकता है। यदि ऐसा हो गया तो न्याय पाने में आधी जिंदगी खप जाएगी। आप में से शायद कुछ को राष्ट्रीय शंकालु देश वाली बात ज्यादा नाटकीय लगे। आप इसे राष्ट्रीय शंकालु समाज कह सकते हैं या शायद नहीं। मैं तो इसे बस बहस के लिए उछाल रहा हूं।
शेखर गुप्ता
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)