वायरस का शोर:जात-पांत का जोर

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कोरोना महामारी के संदर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी निर्देश में बीमारी से बचाव के लिए ‘शारीरिक दूरी’ पद का इस्तेमाल किया गया है लेकिन हमारे यहां सरकारी रिपोर्ट्स और मीडिया में ‘सामाजिक दूरी’ जैसे पद का इस्तेमाल हो रहा है। यह पद अपने आप में विभाजनकारी प्रवृत्ति वाला है। एक तरफ यह लोगों में भय का भाव भरता है, दूसरी तरफ सबसे करीबी लोगों में भी एक-दूसरे से जुड़े रहने की प्रवृत्ति को कम करके अकेलेपन का भाव पैदा करता है। भारतीय समाज पहले से ही विभिन्न जातियों में बंटा हुआ है और उनके बीच पर्याप्त सामाजिक एकता का अभाव है। ऐसे में ‘सामाजिक दूरी’ की धारणा लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दौरान हासिल न्यूनतम एकता को भी चुनौती देती है। यह कहना दोहराव होगा कि कोविड-19 की महामारी मानव सभ्यता के ज्ञात इतिहास में सबसे बड़ा संकट बनकर आई है। इसने पूरी दुनिया को एक साथ अपने दायरे में ले लिया है। इसीलिए पूरी दुनिया मानव सभ्यता के आदिम दौर को बड़ी शिद्दत से याद कर रही है और लोग उस दौर से नजदीकी महसूस कर रहे हैं।

आपने सोशल मीडिया पर देखा होगा कि लोग अपनी पुरानी तस्वीरें साझा कर रहे हैं। बहुत से लोग यह भी सोचने लगे हैं कि ऐसी विकट आपदाओं से निपटने के लिए पुरानी ग्रामीण अर्थव्यवस्था बहुत काम की चीज है। इसी क्रम में दुनिया पर किसी न किसी रूप में शासन करने वाले दलों, धर्मों और जातियों ने भी इसको अपने लिए सुनहरे अवसर के रूप में परिभाषित करना शुरू कर दिया है। कोरोना संक्रमण की बीमारी है लेकिन इसे भारत में छुआछूत की बीमारी के रूप में देखा जा रहा है। भारत में छुआछूत की प्रथा के रूप में जातिवाद का निकृष्टतम रूप पहले से ही मौजूद है। इसलिए बहुत सारे लोगों को यह कहने का सुनहरा मौका मिल गया है कि दरअसल जाति व्यवस्था भी भारतीय समाज में ऐसे ही किसी ऐतिहासिक पड़ाव की उपज है।लोगों ने जाति व्यवस्था की वैज्ञानिकता को प्रमाणित करने की मुहिम छेड़ रखी है और यहां तक दावा करने लगे हैं कि ऐसी ही बीमारियों से बचने के लिए उनके पूर्वजों ने जाति व्यवस्था जैसा वैज्ञानिक इंतजाम कर रखा है। पुरानी सामाजिक व्यवस्था को याद करने का यह भी एक पहलू उभर कर सामने आया है।

पिछले दिनों भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार मुकुल केशवन ने ‘कास्ट एंड कंटेजन’ शीर्षक से ‘द टेलीग्राफ’ में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने दिखाया कि कैसे भारत में मुस्लिम समुदाय और डिजिटल उपभोक्ताओं की जरूरतें पूरी करने वाले लोग आज के समय के नए दलित हैं।इस तरह हम देखते हैं कि कोविड महामारी से बचने के जो उपाय हैं वे बहुत हद तक जाति व्यस्था में पहले से ही व्याप्त पवित्रता की अवधारणा को पुष्ट करते हैं। आखिर जिन लोगों को घरों में रहने की हिदायत दी जा रही है, वे अपनी जरूरत के सामान कैसे हासिल करेंगे? जाहिर है, इसके लिए एक ऐसा तबका जरूरी है जो घरों में सामान पहुंचाए। उनकी पूर्व प्रचलित जातिगत पहचान के परे हम उनके साथ वे ही सावधानियां बरतेंगे जो किसी तथाकथित उच्च जाति के व्यक्ति द्वारा कथित निनजाति के व्यक्ति के साथ बरती जाती हैं। इस तरह छुआछूत का एक नया संस्करण हमारे सामने है, हालांकि यह ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है, क्योंकि यह बीमारी आज नहीं तो कल खत्म होगी ही। कोविड-19 महामारी को वर्चस्वशाली सामाजिक शक्तियों ने भी अपने हित में एक अवसर का रूप दे दिया है।

सरकार की गतिविधियों और निर्णय लेने के तरीके से जाति व्यवस्था के नियमों को और बल मिला है। यह अनायास नहीं है कि देश के तमाम हिस्सों से जातिगत उत्पीडऩ और हिंसा की घटनाओं की खबर आने लगी है। लखनऊ में चोरी के आरोप में दलित नौजवानों के बाल काट दिए गए और गले में जूता पहनाकर घुमाया गया। अमरोहा में मंदिर में प्रवेश करने के कारण एक दलित की हत्या कर दी गई। गोरखपुर के पोखरी गांव में दलित मोहल्ले पर दबंगों ने हिंसक हमला किया। जौनपुर के एक दलित मोहल्ले में आग लगा दी गई। आजमगढ़ में दलित लड़की को छेडऩे का विरोध करने पर गांव पर हमला हुआ। महराजगंज के क्वारंटाइन सेंटर से खबर थी कि वहां स्वर्ण लोग दलितों द्वारा बना खाना नहीं खा रहे। वे रात में अपने घरों में रहते थे और दिन में सेंटर पर आ जाते थे। ऐसे ही आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में दलित समुदाय के 57 परिवारों के एक टोले में से किसी को भी पहाड़ी से नहीं उतरने दिया जा रहा है। बाकी गांव वालों को लगता है कि ये गंदे लोग हैं इसलिए कोरोना फैला सकते हैं। इसी तरह की घटनाएं तमिलनाडु में भी हुई हैं।

खबरें बता रही हैं कि जातिगत उत्पीडऩ और हिंसा के मामले तमिलनाडु, गुजरात, उत्तर प्रदेश और बिहार में अन्य राज्यों से ज्यादा हुए हैं।इस दौर में एक खास चीज यह देखने को मिली है कि पिछड़ी जातियों के लोगों के साथ भी जातिगत उत्पीडऩ और भेदभाव की घटनाएं देखने को मिल रही हैं। उन पिछड़ी जातियों के साथ भी जो सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर पर सवर्णों के बराबर होने का दावा करती रही हैं। प्रतापगढ़ में पटेल जाति के लोगों के साथ यही हुआ। हिंसा पर उतारू हमलावरों ने वहां बार-बार कहा कि ‘तुम लोग हमारी बराबरी करोगे? टाइल्स वाले घरों में रहोगे?’ ध्यान रहे, ऐसे ही तर्क दलित उत्पीडऩ के समय भी दिए जाते हैं। तो ये घटनाएं किस तरफ इशारा कर रही हैं? क्या इनसे यह सिद्ध नहीं होता कि उदारवादी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत वंचित और पिछड़ी जातियों को जो थोड़ी-बहुत समानता और अधिकार हासिल हुए थे, उन्हें भी इस महामारीजन्य परिस्थिति ने उनसे छीन लिया है और वर्चस्वशाली जातियों को उनका दमन करने की नई दलीलें उपलब्ध करा दी हैं?

राम नरेश राम
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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