इन दिनों उत्तराखंड के जंगल धधक रहे हैं। पिछले हफ्ते आग बुझाने के लिए वायुसेना के दो हेलिकॉप्टर गए थे। जंगलों में हवा के अंधड़ से इतना धुआं उठा कि रेस्क्यू ऑपरेशन नाकाम हो गया। पहाड़ी इलाकों में आग सतह से ऊपर की ओर बढ़ती है। इसलिए कारगर उपाय मान कर हेलिकॉप्टर मंगाए गए थे। इस आखिरी कोशिश के साथ यहां लगी आग बुझाने के सारे सिस्टम बेकार हो गए हैं।
यह साल कोरोना के साथ-साथ जंगल में आग की आपदा के लिहाज से भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। साल के शुरू से ही हिमाचल प्रदेश, नगालैंड-मणिपुर के सीमावर्ती इलाकों, ओडिशा, मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार आदि के जंगलों में आग लगने की घटनाएं सामने आ रही हैं। देश में आमतौर पर अप्रैल-मई में जंगलों में आग लगती है। लेकिन इस बार की घटनाएं चौंकाने वाली हैं। वर्ष 2019-20 में सिर्फ उत्तराखंड में नवंबर से जनवरी के बीच आग की 139 घटनाएं हुई थीं, जबकि इस वर्ष इन तीन महीनों में 470 घटनाएं हुईं। अब तक ये घटनाएं हजार का आंकड़ा पार कर चुकी हैं।
दुनिया भर में आग कहीं भी लगे, वजहें लगभग एक जैसी ही होती हैं। बिजली गिरना, पेड़ों का आपस में रगड़ खाना, कम बरसात होना और गर्मी से जमीन का अधिक तप जाना- ये आग की कुछ प्राकृतिक वजहें हैं, मगर इन वजहों से लगने वाली आग कुल घटनाओं का महज 10 से 20 फीसदी हिस्सा ही होती हैं। पश्चिमी देशों के जंगलों में लगभग 80 प्रतिशत और हमारे देश में 90 प्रतिशत मामलों के पीछे इंसानों का हाथ होता है। बरसात से पहले चरवाहे सूखी घासों में आग लगा देते हैं, ताकि उस जगह पर दोबारा अच्छी घास उग सके। पर्यटक और लकड़ी लेने के लिए जंगल जाने वाले जलती हुई बीड़ी, सिगरेट या माचिस की तीली फेंक देते हैं, इससे भी आग लगती है।
उत्तराखंड के भौगोलिक क्षेत्रफल का 71 प्रतिशत, यानी 38,000 हेक्टेयर फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के अंदर आता है। इनमें से 46 प्रतिशत भू-भाग पर जंगल फैला है। अंग्रेजों के समय में इन जंगलों में जो फायर लाइन बनाई गई थी, उन पर दो लाख से अधिक पेड़ खड़े हैं। फायर लाइन आग लगने की हालत में आइसोलेशन का काम करती है। सुप्रीम कोर्ट ने 1000 मीटर से ऊपर के पेड़ों को काटने पर रोक लगा दी है। पिछले 40 साल से ये पेड़ नहीं काटे गए हैं।
उत्तराखंड में 16 फीसदी जंगल चीड़ के हैं। हर साल गर्मियों में गिरने वाली चीड़ की पत्तियों और टहनियों (पाइन नीडल्स) की सफाई की जरूरत रहती है। पिछले साल लॉकडाउन लग गया, तो यह काम नहीं हो पाया। इस साल का कचरा भी बचा हुआ रह गया। पाइन नीडल्स जंगलों में लगने वाली आग में पेट्रोल का काम करते हैं क्योंकि इनमें काफी मात्रा में ज्वलनशील रेजिन पाई जाती है। रेणुका चौधरी की अध्यक्षता में बनी पार्लियामेंट्री कमिटी ने वन विभाग को हर साल पाइन नीडल्स की सफाई का निर्देश दिया था। तभी यह रिपोर्ट आई थी कि जंगलों में आग लगने की घटनाओं में 56 फीसदी का इजाफा हो गया है।
पिछले हफ्ते उत्तराखंड हाई कोर्ट की तरफ से जवाब मांगा गया, तो वन विभाग ने कई वजहें बताईं। इनमें एक कारण यह भी था कि फॉरेस्ट गार्ड के 65 प्रतिशत पोस्ट खाली पड़े हैं। इस पर हाईकोर्ट ने कहा कि जब आग लगी हुई है, तब ऐसी बातें मायने नहीं रखतीं। जंगलों की सुरक्षा के लिए वन पंचायत का कॉन्सेप्ट सबसे पहले उत्तराखंड में लाया गया। इस समय यहां 12 हजार वन पंचायतों में से महज पांच हजार ही एक्टिव हैं। इससे भी मॉनिटरिंग कमजोर पड़ रही है।
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई), जो देहरादून में ही है, जंगलों में आग लगने की सूचना देता रहता है। नासा का फायर इन्फॉर्मेशन फॉर रिसोर्स मैनेजमेंट सिस्टम सैटलाइट के माध्यम से हर तीन घंटे पर आग की सूचना अपडेट करता रहता है। इसके अलावा जंगल में फायर वॉच टावर होते हैं, जिससे वॉकी-टॉकी और अन्य साधनों से सूचनाएं दी जाती हैं। इसके बावजूद जंगल में आग लगने पर वह नियंत्रण से बाहर हो जाना बड़ा सवाल छोड़ता है।
दिलीप लाल
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)