ट्रंप का हथियार था ‘सायबरस्पेस’

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ट्रम्प पर चुनावों के नतीजों को प्रभावित करने के लिए चले महाभियोग का जो भी नतीजा रहा हो, लेकिन उन्होंने जो हथियार इस्तेमाल किया था, वह अभी भी उपलब्ध है। इसे ‘सायबरस्पेस’ कहते हैं। यहां हम सभी जुड़े हुए हैं, लेकिन इसकी जिम्मेदारी किसी के पास नहीं है। ट्रम्प ने इसका इस्तेमाल बड़ा झूठ फैलाने में किया, जिसने हमारे चुनावी तंत्र को प्रभावित किया और कैपिटल के हमले को प्रेरित किया। हमें जल्द इस सायबरस्पेस के लोकतांत्रिक हल की जरूरत है।

चीन ने अपने साम्यवादी मूल्यों और तानाशाही तंत्र को सायबरस्पेस में पेश करना सीख लिया है। बेहतर होगा कि अमेरिका भी इसमें अपने लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रसार का तरीका निकाल ले, जिससे उसकी वृद्धि और स्थिरता बढ़े। वर्ना हम चीन से आर्थिक रूप से पीछे हो जाएंगे, क्योंकि महामारी ने तेजी से हर चीज का डिजिटाइजेशन किया है।

यह कैसे हुआ? इंटरनेट पर चल रहे सभी ऐप्स के जोड़ से बने सायबरस्पेस का जन्म 1990 के दशक में हुआ। तब यह सौम्य था। फिर ब्लॉगर्स और वेबसाइट की नई नस्ल पैदा हुई, जो खुलकर अपनी बात कहते थे। अब सीधे आते हैं आज पर। सायबरस्पेस अब सार्वभौम राष्ट्र जैसा बनने लगा है। इसकी कोई सीमा, कोई सरकार नहीं है। इसका टेलीग्राम जैसा इनक्रिप्टेड कम्युनिकेशन सिस्टम है। फेसबुक, यूट्यूब और ट्विटर जैसे वैश्विक न्यूज प्लेटफॉर्म हैं। बिटकॉइन जैसी खुद की मुद्रा भी है।

पिछले कुछ साल में ये प्लेटफॉर्म पैदा हुए हैं। इन्होंने लोगों की आ‌वाज उठाने में मदद की है। उन्होंने अगर नस्लीय समानता के लिए बड़े आंदोलन पैदा किए तो ऐसी भीड़ भी पैदा की जो कोविड-19 टीकाकरण का विरोध करती है। बड़ा सवाल यह है कि इस सायबरस्पेस का ज्यादा अच्छा इस्तेमाल कैसे किया जाए।

जैसे-जैसे सायबरस्पेस उभरा, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे सत्ता पर अपने एकाधिकार के लिए खतरा माना। इसलिए 2014 में चीन ने नियंत्रण के लिए ‘सायबरस्पेस एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ चाइना’ नाम का विशेष मंत्रालय बनाया। अब, जिस तरह आप द पीपल्स डेली में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की आलोचना नहीं छाप सकते, उसी तरह सिना वीबो पर भी आलोचना नहीं लिख सकते, जो चीन का फेसबुक और ट्विटर का मिश्रण है।

इधर जब एमेज़न, फेसबुक, ट्विटर और गूगल जैसी अमेरिकी सायबर कंपनियां उभरी तो यह तर्क दिया गया कि सायबरस्पेस पर सबसे अच्छा शासन यह होगा कि किसी सरकार का नियंत्रण न रहे। इस तरह उनके बिजनेस मॉडल का ही नियंत्रण होगा। वे 1996 में आए कानून कम्युनिकेशन डीसेंसी एक्ट की धारा-230 की मदद से तेजी से आगे बढ़े।

इसने कहा कि इंटरनेट/सायबरस्पेस कंपनियों को प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने वाले लोगों द्वारा मानहानि या झूठे पोस्ट के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, जैसे अखबार या न्यूज चैनल को ठहरा सकते हैं। इससे इंटरनेट को बढ़ने में मदद मिली, लेकिन इसका इस्तेमाल फेसबुक, यूट्यूब ने अपने कंटेंट के भारी संपादन से बचने में किया। उन्होंने जल्द ही ऐड से पैसा कमाना शुरू कर दिया।

राजनेताओं ने जल्द ही महसूस किया कि वे डेटा से लाभ उठा सकते हैं। बराक ओबामा ने ऑनलाइन धन जुटाने के लिए अपने पहले राष्ट्रपति अभियान में इसका इस्तेमाल किया था, और फिर डोनाल्ड ट्रम्प ने 2016 में मिडवेस्ट राज्यों में अपने समर्थकों को जुटाने और इसी राज्य में रूसियों की मदद से हिलेरी क्लिंटन के लिए अश्वेत मतदाताओं को दबाने के लिए इस्तेमाल किया। तब से इन प्लेटफॉर्म के ऐसे इस्तेमाल बढ़ते ही गए।

शोशना ज़ुबॉफ ने इस व्यवसाय मॉडल का नाम ‘निगरानी पूंजीवाद’ रखा। ज़ुबॉफ कहती हैं, ‘जहां चीन ने सत्तावादी शासन की अपनी प्रणाली को आगे बढ़ाने के लिए डिजिटल तकनीकों को डिजाइन और तैनात किया, वहीं पश्चिम ने समझौता कर लिया और अस्पष्टता बनाए रखी। इससे निजी निगरानी बढ़ी और लोकतांत्रिक शासन के बाहर नियंत्रण चला गया।’

इसीलिए मुझे यूरोपियन संघ से उम्मीद है, जिसने गूगल जैसे सर्च इंजन्स पर अपने नागरिकों को ऑनलाइन दी जा रही गलत जानकारी को मिटाने का अधिकार देने का दबाव बनाया है। कुछ हफ्ते पहले यूरोपियन कमीशन की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने बताया कि दिसंबर में EU नेतृत्व ने यूरोपीय संसद को ऐसे अधिनियमों के प्रस्ताव दिए जो सुनिश्चित करें कि ‘जो एनालॉग दुनिया में गैरकानूनी है, वह ऑनलाइन में भी गैरकानूनी हो।’

यूसीएलए के प्रोफेसर रमेश श्रीनिवासन कहते हैं कि अमेरिका को ऐसे डिजिटल विधेयक की जरूरत है, जो अभिव्यक्ति की आजादी और हेट स्पीच और गलत जानकारी को वायरल करने वाली एल्गोरिदम के बीच संतुलन बनाए।

थॉमस एल. फ्रीडमैन
(लेखक तीन बार पुलित्जऱ अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइस’ में नियमित स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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