चुनने से ज्यादा जरूरी है प्रशिक्षण

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फिलहाल हम कोरोना के कारण होटल की बजाय कंपनी के गेस्ट हाउस में रुकना पसंद कर रहे हैं। इस दौरान हमने देखा कि कैसे मानव संसाधन और विभिन्न सामग्रियां बर्बाद हो रही हैं, जिनपर काफी खर्च होता है। इसके अलावा सीनियर मैनेजमेंट का दिमाग मामूली चीजों में खर्च हो रहा है और उनका कीमती समय बेकार जा रहा है। ये रहे कुछ उदाहरण। मैं जिस गेस्ट हाउस में पिछले 4 दिन से रुका हूं, वहां के केयरटेकर ने इस रविवार सुबह 4.30 बजे मेरे सहकर्मी का दरवाजा खटखटाया और पूछा, ‘सर (यहां मेरी बात हो रही है) ने अभी तक घंटी बजाकर सुबह की चाय नहीं मंगाई। क्या मैं दरवाजा खटखटाकर चाय दे दूं?’ सहकर्मी नींद में ही बोला, ‘सोने दे यार अभी।’केयरटेकर तुरंत बोला, ‘मैं तक जाग गया। मैं बस सोच रहा था कि सर तो 3.30 बजे उठकर चाय पी लेते हैं, पर आज अभी तक नहीं बुलाया।’ उसे जानकारी थी कि रविवार है और हमारी मीटिंग सुबह 8 बजे की जगह 10 बजे है, फिर भी उसने पहले वाले टाइमटेबल के मुताबिक ही काम किया। इस तरह मेरी टीम के लिए बनाई गई चाय (संसाधन) बर्बाद हो गई। यह इकलौती घटना नहीं है। मेरी टीम के साथ एक यात्रा में हमने कुछ दिन और रुकने का फैसला लिया। चूंकि कोई भी अतिरिक्त कपड़े नहीं लाया था, इसलिए दो विकल्प थे। या तो पिछले पांच दिन पहने गए कपड़े धोएं या दो दिन के लिए नए कपड़े खरीदें।

हमने पहला विकल्प चुना और यही बड़ी गलती थी। न हमने उस शहर में जल्दी कपड़े लौटाने वाली लॉन्ड्री सुविधा के बारे में पता किया, न ही यह जाना कि केयरटेकर व्यवस्था कर पाएगा या नहीं। बस उसे कपड़े साफ करवाने बोल दिया। जब हम आठ घंटे बाद लौटे तो देखा कि ठंडे मौसम के बावजूद सारे कपड़े धुलकर, इस्त्री कर, पैक कर दिए गए थे। परेशानी यह थी कि कपड़े ऐसे लग रहे थे, जैसे बिना धोए इस्त्री कर दिए गए हों। हमें निराश देख एक सीनियर व्यक्ति को यह काम दिया गया, जो कपड़े ड्राई क्लीनिंग के लिए ले गया, क्योंकि उसका स्टाफ कपड़े धोने के लिए प्रशिक्षित नहीं था। तीसरी घटना मजेदार है। नहाने के बाद मैं हमेशा शैम्पू सैशे वॉश बेसिन पर सीधा रख देता हूं क्योंकि मैं एक बार में पूरा शैम्पू इस्तेमाल नहीं करता। उस गेस्ट हाउस के हाउसकीपर ने सैशे मेरी किट में वापस रख दिया। उसकी मंशा अच्छी थी चूंकि उसे लगा कि सैशे मेरा है और उसे मेरी किट में होना चाहिए। लेकिन इससे मेरी पूरी किट में शैम्पू का झाग फैल गया और हमें उसकी ज्यादातर चीजें फेंकनी पड़ीं। तीनों घटनाओं में समानता यह थी कि अप्रशिक्षित कर्मचारी खुद को मेहमानों या प्रबंधन की डांट से बचाने की कोशिश कर रहे थे। पहले मामले में केयरटेकर को एकदम सुबह-सुबह 3.30 बजे चाय न देने पर डांट पड़ी।

दूसरे मामले में टीम ने केयरटेकर को तेजी से काम न करने पर डांटा और इसीलिए उन्होंने कपड़े धोने पर ध्यान दिया, धुलाई की गुणवत्ता पर नहीं। और तीसरी घटना में वे संसाधन की बर्बादी पर पड़ने वाली डांट से बचना चाहते थे और इसीलिए ट्रैवल किट में खुला शैम्पू सैशे तक रख दिया। संक्षेप में, वे सभी कार्य की मानक प्रकिया के हिसाब से नहीं, बल्कि मेहमान की प्रतिक्रिया के मुताबिक व्यवहार कर रहे थे। फंडा यह है कि नए कर्मचारियों को नौकरी पर रखने से पहले उन्हें जितना संभव हो, उतना प्रशिक्षण देना चाहिए। यकीन मानिए प्रशिक्षण, प्रदर्शन को बदल सकता है। ठान लें तो जीत आपको ही मिलेगी: ‘मेरा बच्चे इस पूरे अकादमिक साल में एक भी दिन स्कूल नहीं गया और अब उसे दो महीनों में बोर्ड की परीक्षाएं देनी होंगी। बच्चा तो छोडि़ए, हमें भी नहीं पता कि क्या करना चाहिए? क्या ऐसे में मेरा बच्चा एक साल का गैप ले सकता है? क्या इस गैप ईयर से उसकी पूरी शिक्षा पर असर नहीं पड़ेगा? जैसे विदेश में पढ़ाई करने पर कुछ साल लगातार पढ़ाई अनिवार्य होती है?…’ सवाल अनंत थे। मैं जहां भी जाता है, जिससे भी मिलता हूं, ऐसे सवाल पूछे जाते हैं, हालांकि में पेशेवर काउंसलर नहीं हूं। मैं ईमेल पर मिलने वाले पाठ्यक्रम और इसमें बदलाव के कारण प्रश्न पत्रों में परिवर्तन संबंधी तकनीकी सवालों को पेशवरों को फॉरवर्ड कर देता हूं।

लेकिन ज्यादातर सवाल इससे जुड़े होते हैं कि क्या बच्चा परीक्षा के लिए तैयार है। इस साल छात्र ही नहीं, पूरा परिवार तनाव में है। जहां छात्र अच्छे अंकों के साथ सफल होने को लेकर चिंतित हैं, वहीं माता-पिता को न सिर्फ कोविड से सुरक्षा की चिंता है, बल्कि उन्हें उम्मीद अनुसार नतीजे न आने की आशंका भी है। स्पष्ट है कि ऑनलाइन लर्निंग, कक्षा जैसी पढ़ाई नहीं करवा पाई है। एक छात्र ने निराशा के साथ लिखा, ‘सर यह मेरी बदकिस्मती है कि कोविड उसी साल आया, जिस साल मुझे ‘मेरी शिक्षा का पहला डॉयूमेट’ (यानी बोर्ड परीक्षा, जिसकी मार्कशीट जिंदगीभर काम आती है) मिलना था।’ मैं उसके शब्दों के चयन से प्रभावित हुआ, लेकिन चिंता भी हुई कि वह अपनी किस्मत और जन्म के वर्ष को कोस रहा है। अगर आप भी चिट्ठी वाले बच्चे जैसा सोचते हैं तो आपको दिव्या प्रजापति की कहानी जाननी चाहिए। अहमदाबाद के धनधुका तालुक के वसना गांव में एक सब्जी विके्रता के घर उसका जन्म हुआ। पिछले साल 20 मार्च को उसके मातापिता बचत के 1.5 लाख रुपये लेकर राजस्थान के जालोर जिले में अपने पैतृक गांव जसवंतपुरा स्थित पैतृक मकान सुधरवाने के लिए निकले। दो दिन बाद सरकार ने राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन घोषित कर दिया। न तो पिता तान्हाजी और न ही मां गीता अहमदाबाद लौट सकती थी।

इसलिए दिव्या और उसका भाई अहमदाबाद में दो महीने अकेले रहे। भाई-बहन ने दिव्या को आर्टिकलशिप से बचाए गए पैसों और आईसीएआई, अहमदाबाद द्वारा प्रतिमाह मिलने वाली स्कॉलरशिप से गुजारा किया। उसे यह स्कॉलरशिप 2019 में इंटरमीडिएट एजाम में देश में 7वीं रैंक लाने पर मिली थी। उधर माता-पिता भी घर नहीं सुधरवा सके और सारी बचत खर्च हो गई क्योंकि लॉकडाउन में कुछ कमाई नहीं हुई। सीए फाइनल परीक्षाओं ने दिव्या की परेशानी और बढ़ा दी, जो पहले मई 2020 में होनी थीं, फिर उन्हें पहले जून, फिर जुलाई और फिर नवंबर तक के लिए आगे बढ़ा दिया गया। इतना ही नहीं, जब 21 नवंबर को परीक्षा होना तय हुआ, तब राज्य सरकार ने दीवाली के बाद कोरोना मामलों में इजाफे के कारण 19 और 20 नवंबर को कर्फ्यू लगा दिया। दिव्या समेत सभी के लिए यह डराने वाला था। लॉकडाउन के कारण परिवार से अलग होने, बचत खर्च होने और परीक्षाएं बार-बार टलने के तनाव के बावजूद दिव्या पिछले सोमवार आधिकारिक रूप से चार्टर्ड एकाउंटेट बन गई। भले ही उसे ऑल- इंडिया रैंक नहीं मिली, पर उसकी सफलता इस बात का प्रमाण है कि जिंदगी में कितनी ही मुश्किलें आएं, दृढ़ निश्चय से सबकुछ हासिल कर सकते हैं। फंडा यह है कि आप इस पर नियंत्रण नहीं कर सकते कि कोविड जैसी समस्याएं कब आएंगी या आप कहां जन्म लेंगे। लेकिन अगर आप ठान लें, तो जीत जरूर मिलेगी।

एन. रघुरामन
(लेखक मैनेजमेंट गुरु हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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