क्या नरेंद्र भाई मोदी का राज चले जाने से हमारा हिंदू-पन संकट में पड़ जाएगा? क्या ऐसा होने से हिंदू-दर्शन तबाह हो जाएगा? क्या हमें इसलिए नरेंद्र भाई का पल्लू नहीं छोड़ना चाहिए कि अगर उनकी हुक़ूमत नहीं रही तो हिंदुओं को म्लेच्छ शक्तियां लील जाएंगी? क्या ‘मोशा’ नहीं होंगे तो हमारे हिंदू संस्कार किसी मैली नदी में तिरोहित हो जाएंगे? और, क्या कांग्रेस का पुनरुत्थान इसलिए ज़रूरी है कि ऐसा हुए बिना नेहरू-गांधी परिवार सिरमौर बना नहीं रह पाएगा? क्या कांग्रेस पुनर्जीवित नहीं हुई तो सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका को आज की सियासत गटक जाएगी? क्या कांग्रेस का पुनर्प्रबंधन सिर्फ़ इसलिए आवश्यक है कि उसकी नृत्यशाला में चंद मुरली-गोपाल अपने हाथों पर गजरा बांध कर और ज़ोर-ज़ोर से कमर मटकाएं? नहीं। ये दोनों ही अवधारणाएं टुच्ची हैं, बरगलाने वाली हैं और सच्चाई से कोसों नहीं, कई प्रकाश-वर्ष दूर हैं। इन दोनों ही संकल्पनाओं को हमारे-आपके दिमाग़ों में बैठाने का अनुष्ठान करने में जो भी महापंडित लगे हैं, उनके कांइयां-कर्म को अगर हमने आज भी नहीं समझा तो फिर उसे कभी भी न समझना ही बेहतर होगा। हमारा हिंदू-पन कोई नरेंद्र भाई की देन नहीं है। शाश्वत हिंदू-दर्शन हज़ारों साल से हमारी रक्त-वाहिनियों में किसी नरेंद्र भाई की वज़ह से नहीं बह रहा है। कथित म्लेच्छ शक्तियों की आभासी अबाबीली से हिंदुओं को किसी नरेंद्र भाई के आंचल ने नहीं बचा रखा है। हमारे हिंदू संस्कार किसी ‘मोशा’ जुगलजोड़ी के कारण महफ़ूज़ नहीं हैं।
हां, हमारे हिंदू-पन को हिंदुत्व की कट्टरता में तब्दील करने का श्रेय ज़रूर नरेंद्र भाई को है। हिंदू-दर्शन को संघ-उवाच में बदल देने का प्रेय ज़रूर नरेंद्र भाई के दामन पर चस्पा है। हिंदुओं का रूपांतर बजरंगदलीयों में कर देने की नाकाम कोशिशों के लिए आप नरेंद्र भाई को अवश्य याद कर सकते हैं। हिंदू संस्कारों के घनघोर विचलन का एक नया शास्त्र रचने का कलंक आप ‘मोशा’ के अलावा और किस की पेशानी पर लगाएंगे? इसलिए अगर आगे हिंदू-पन को सशक्त करना है, हिंदू-दर्शन के मौलिक पन्ने सहेजे रखने हैं, हिंदुओं को अपने चिरंतन धर्म का पालनहार बने रहने देना है और हिंदू संस्कारों को पतनाले में गिरने से बचाना है तो उसका एक ही तरीका है कि भारत नरेंद्र भाई की प्रवृत्ति से मुक्ति पाए, कि भारत ‘मोशा’-वृत्ति से निज़ात ले। जिस दिन हमारी राजनीति इस प्रवृत्ति-वृत्ति से मोक्ष पा लेगी, हिंदू धर्म का एक नया पवित्र अध्याय आरंभ होगा। अब दूसरी स्थापना पर आइए। जिन्हें कांग्रेस के पुनरुत्थान का स्थूल अर्थ नेहरू-गांधी परिवार भर से जुड़ा नज़र आता है, उन्हें अपने संकरे कूप से बाहर आने की ज़रूरत है। सवाल यह नहीं है कि सोनिया, राहुल और प्रियंका का क्या होगा? सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस न हुई तो आज की सियासी सुरसा इन तीनों को गटक जाएगी। और, यह सवाल तो है ही नहीं कि शैशव-भांगड़ा कर रहे कांग्रेसी-शिशुओ के भविष्य का क्या होगा? इनमें से जिन-जिन का जो-जो होगा, सो, हो जाएगा। होनी को तो हो कर रहना ही है।
मगर सोचना तो यह है कि आज अगर कांग्रेस की सारथी-भूमिका लुप्त हो गई तो क्या जनतंत्र के सूर्य के असमय अस्त होने के खतरे को हमारे सारे दिव्यास्त्र मिल कर भी टाल पाएंगे? सो, भले ही लोकतंत्र कोई कांग्रेस की ही मेहरबानी पर टिका हुआ नहीं है, मगर इस तथ्य से मुंह मत फेरिए कि अगर आज के दौर में कांग्रेस नहीं रही तो प्रजा के बचे-खुचे तंत्र को दरक-दरक कर पूरी तरह ढहने में देर नहीं लगेगी। कांग्रेस जैसी भी है, उसके नेतृत्व के बारे में आपकी जो भी राय हो और उसके पुनर्जीवन की संभावनाओं को आप दस में से कितने ही अंक देते हों; एक बात गांठ बांध लीजिए कि यह कांग्रेस और उसका मौजूदा शिखर ही है, जो बीच में दीवार बन कर खड़ा है। वरना साम-दाम-दंड-भेद का लावा जम्हूरियत के पोले पड़ गए इस्पात को अब तक तो कब का परमपद दिला चुका होता। इसलिए कांग्रेस को पानी पी-पी कर खूब गालियां दीजिए, राहुल गांधी को तो अपनी तमाम नैतिकता खूंटी पर लटका कर कोसिए, नेहरू से लेकर मणिशंकर अय्यर तक किसी को मत बख़्शिए और इस बात की तो एकदम निर्लज्जता से अनदेखी कर दीजिए कि कांग्रेस की स्वाधीनता आंदोलन में कोई भूमिका थी, लेकिन एक बार अपने दिल में न सही, ग़िरेबां में ही, झांक कर ख़ुद को टटोलिए। बताइए कि कांग्रेस यानी विपक्ष नहीं होगा तो अपना बोझा पीठ पर लादे सैकड़ों मील पैदल चलते मज़दूरों के काफ़िले घटेंगे कि बढ़ेंगे? कि गंगा-जमुना की तहज़ीबी लहरे आपस में अठखेलियां करेंगी कि फुंकार भरेंगी? कि साढ़े तीन साल पहले आधी रात को ठुकरा दी गई लक्ष्मी कभी फिर आपकी चौखट पर आने को सोचेगी कि नहीं सोचेगी?
सपनों को बुनने की जितनी भी डोर हमारे पास थी, पिछले छह साल की सल्तनत ने सब खींच ली। हमारे निर्वाचित-आका ने छह साल सिर्फ़ हमें अपने सपनों को मारने का हुनर सिखाने की कक्षाएं लगाईं। हमंे इन प्रवचनों को सुनने के अलावा क्या मिला कि एक दिन आएगा कि अच्छे दिन आएंगे? हमें हर रोज़ सलाह दी जा रही है कि अपनी ख़्वाहिषों को ख़त्म कर के ख़ुश रहना सीखिए। यह मशवरा हमारी रगों में भीतर तक इतना उतर गया है कि हम ख़ामोशी ओढ़े अब ख़ुद-ही-ख़ुद में रहने लगे हैं। पूरी सियासत ऐसी पत्थर होती जा रही है कि उसकी कंदराओं में सारी संवेदनाएं खोती जा रही हैं। इसलिए इस विषाणु-समय में, जैसी भी है, कांग्रेस का रहना और पनपना जनतंत्र के लिए ज़रूरी है। अगर राहुल-प्रियंका कांग्रेस के जलोदर का इलाज़ कर पाएं तो भी और न करना चाहें तो भी। कांग्रेस अपने चर्मरोगों से छुटकारा पा ले तो भी और न पा सके तो भी। कांग्रेस का होना ज़रूरी है। विपक्ष का रहना ज़रूरी है। व्यक्तियों को जाने दीजिए, भारत को तय तो यह करना है कि उसकी मूल प्रवृत्तियां क्या रहेंगी? मुद्दा नरेंद्र भाई थोड़े ही हैं। मुद्दा तो यह है कि ‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन’ की परिभाषा क्या होगी?
मुद्दा राहुल गांधी थोड़े ही हैं। मुद्दा तो यह है कि हमारी मौजूदा व्यवस्था में असहमतियों के लिए कोई ज़गह होगी या नहीं? जिनकी अक़्ल घास चरने वली गई है, वे भी; और, जिनकी बुद्धि छलक रही है, वे भी; इतना समझ लें कि हर तरह की टिड्डियों के हमले से भारतवासी अपनी फ़सल को, जितना हो सकेगा, बचा तो ले ही जाएंगे; मगर इतिहास का देवता एक दिन आ कर हम से पूछेगा कि जब आसमान में बदरंग घटाएं अपना तांडव दिखा रही थीं तो हमने उन्हें छितराने के लिए हो रहे यज्ञों में अपनी समिधाएं अर्पित की थीं या नहीं? जवाब तो एक दिन सभी को देना होता है। जिन-जिन के पास जवाब होगा, वो-वो वैतरिणी पार करेंगे। जो-जो निरुत्तर होंगे, अपने-अपने पातक-नर्क का रुख़ करेंगे। जिन्हें एकतंत्र के पीछे चलना है, उन्हें एकतंत्र मुबारक! जिन्हें लोकतंत्र के साथ चलना है, उन्हें लोकतंत्र मुबारक! जिन्हें दोनों थालियों के कौर चबाने हैं, उन्हें दोगुलापन मुबारक! बस, इतना याद रहे कि वह क्षितिज आप नज़दीक आता जा रहा है, जिस पर नए सवेरे की इबारत लिखी है। सुबह होते ही यह साफ़ हो जाएगा कि हमाम में किसके बदन पर कितने कपड़े थे और थे भी कि नहीं।
पंकज शर्मा
( लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं, ये उनके निजी विचार हैं )