आमजन का दुख कहीं दर्ज नहीं

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जिसे हम अकादमिक भाषा में इतिहास कहते हैं वह भारतीय अतीत के एक लंबे कालखंड में अनुपस्थित रहा है। हम अपने अतीत की बहुत सारी बातें जानते हैं, पर उससे ज्यादा बातें नहीं जानते हैं और उन्हें जानने-समझने के तरीके भी आमतौर पर उपलब्ध नहीं हैं। खासकर आमजन के सुख-दुख किन्हीं ग्रंथों, भोजपत्रों, ताम्रपत्रों या शिलाखंडों में दर्ज नहीं हैं। महामारियों के बारे में यह मौन और भी हैरान करने वाला है क्योंकि यह माना जाता है कि अब तक के मानव इतिहास में जो सबसे महत्वपूर्ण मोड़ आए हैं उनमें कुछ का कारण महामारियां और सामाजिक स्तर पर फैलने वाली व्याधियां भी हैं। महामारी सिर्फ किसी स्वास्थ्य संबंधी आपदा का बड़े पैमाने पर फैल जाना भर नहीं होता। उसके साथ ही समाज की इम्यूनिटी या रोगों से लड़ने की क्षमता भी विकसित होती है।

लेकिन हम नहीं जानते कि किन व्याधियों और महामारियों ने प्राचीन भारतीय समाज पर कब हमला बोला और उन्हें किस तरह मात देता हुआ यह समाज कैसे आगे बढ़ा। मानवशास्त्री मानते हैं कि महामारियों की शुरुआत कृषि युग का प्रारंभ होने के साथ ही हुई। इसके पहले तक ऐसे हालात नहीं थे कि कोई संक्रमण सामाजिक रूप से विस्तार पा सके। पश्चिम के इतिहासकार जब महामारियों को लेकर अतीत खंगालते हैं तो वे ईसा पूर्व 1200 साल तक जाते हैं। इसके बारे में सिर्फ इतनी ही समझ बन सकी है कि यह बेबीलोन का फ्लू था जो तकरीबन पूरे एशिया में फैला था। उसके बाद तो एक पूरी फेहरिस्त है। महामारियां लंबे समय बाद आती हैं और समाज को एक बड़ी त्रासदी तथा थोड़ी सी इम्यूनिटी देकर विदा हो जाती हैं।

बेशक पुराने दौर के समाज महामारियों को स्वास्थ्य समस्या या किसी प्राकृतिक चक्र का हिस्सा नहीं बल्कि अपनी-अपनी परंपराओं, मिथकों और मान्यताओं के हिसाब से दैवीय आपदा ही मानते थे। सुश्रुत के लेखन से एक उद्धरण अक्सर दिया जाता है जिसमें रोग के जो लक्षण बताए गए हैं, वैसे कई लक्षण प्लेग के मरीजों में भी दिखाई देते हैं। लेकिन सिर्फ इतने से ही यह नहीं माना जा सकता कि सुश्रुत जिस रोग की बात कर रहे थे वह प्लेग ही था। हालांकि अगर किसी तरह हम यह साबित कर सकें कि सुश्रुत काल का वह रोग प्लेग ही था तो एक दूसरी समस्या खड़ी हो सकती है। इसका अर्थ होगा प्लेग का सबसे पुराने रेकॉर्ड और नतीजा यह निकाला जाएगा कि प्लेग की शुरुआत भारत में ही हुई थी। इतिहास की अनुपस्थिति की मार दोतरफा भी हो सकती है।

वैसे विज्ञान के मशहूर इतिहासकार बर्नहार्ड स्टिकर ने महामारियों के अपने अध्ययन में एक नतीजा यह भी दिया था कि प्लेग भारत की देन है। हालांकि पूरी दुनिया में प्लेग का जो इतिहास है उससे यह बात यकीन के लायक नहीं लगती इसलिए इस धारणा को कभी मान्यता नहीं मिली। एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि प्लेग के लिए भारतीय भाषाओं में आमतौर पर कोई शब्द उपलब्ध नहीं है। पिस्सू पड़ गए जैसे मुहावरे शायद प्लेग से ही निकले हैं लेकिन इस महामारी को हमने अपनी भाषाओं में आमतौर उसी नाम से स्वीकार किया जो पश्चिम से आया था। इसी के साथ एक दूसरा सच यह भी है कि 19वीं और 20वीं सदी के एक बड़े हिस्से में प्लेग शब्द महामारी का पर्याय हो गया था।

यहां तक कि 1918 के अंत में जब स्पैनिश फ्लू भारत आया तो इसे भी प्लेग कहकर ही संबोधित किया गया। ठीक यहीं पर हमें टीबी के बारे में भी बात करनी चाहिए। टीबी पूरे एशिया के सबसे प्राचीन रोगों में एक है। यह एक महामारी भी है हालांकि वैज्ञानिक इसे पैंडेमिक नहीं ऐपिडेमिक की श्रेणी में रखते हैं। ऐसे कई प्रमाण हैं जो इस ओर इशारा करते हैं कि मिस्र जैसे देशों की तरह ही भारत का भी इस रोग से प्राचीन नाता है। इसके लिए हमारे पास राजक्ष्मा जैसे कुछ पुरातन शब्द हैं, लेकिन कोई ऐसा शब्द नहीं है जिसे हम प्रचलित शब्द मान सकें। क्या इतिहास की तरह महामारियां हमारी भाषा से भी गायब हैं?

हरजिंदर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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