गुबार भांप नहीं पा रही सरकार

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किसान आंदोलन का दायरा फैलता जा रहा है। जगह-जगह किसान पंचायतों का संकेत यही है कि जमीन पर सरकार के खिलाफ गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा है। अब जाटलैंड का इलाका मौजूदा किसान आंदोलन का केंद्र बनकर उभर चुका है ये साफ झलक रहा है। 26 जनवरी की हिंसा के बाद राकेश टिकैत समेत कई नेताओं पर जैसे शिकंजा कसा गया, उसकी प्रतिक्रिया का अंदाजा सरकार को नहीं था ये साफ झलक रहा है। राकेश टिकैत के भावुक भाषण ने किसान आंदोलन को नई संजीवनी दी, जो लगातार शतिवर्धक दवा बनती जा रही है। पहले बहुत से युवा पढ़ाई-लिखाई के कारण बॉर्डर पर नहीं जा रहे थे। लेकिन अब वे अपनी परवाह छोड़कर ऐसा कर रहे हैं। उनके मन में ये बात बैठ गई है कि सरकार न सिर्फ किसानों को बदनाम कर रही है, बल्कि उन पर जबरन बल प्रयोग करके वहां से हटाने की कोशिश में है। इससे पहले किसानों ने राजनीतिक दलों से दूरी बना रखी थी। औपचारिक रूप से यह दूरी अब भी बनी हुई है, लेकिन राजनीतिक दलों के नेताओं को आने से नहीं रोका जा रहा है। उनका समर्थन भी हासिल किया जा रहा है। यानी आंदोलन का रूप बदल रहा है। मौजूदा किसान आंदोलन का हश्र चाहे जो हो, आधुनिक समय में इसके ऐसे कई योगदान हैं, जिनका दीर्घकालिक असर होगा।

सबसे पहले उसने मौजूदा सरकार के तहत क्रोनी कैपिटलिज्म के सामने आए बदनुमा चेहरे को बेनकाब किया था। फिर न्यायपालिका के नए रूप को जनता के सामने दो-टूक लहजे में रखा। यह कहते हुए जिन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन चल रहा है, उनके संदर्भ में न्यायपालिका की कोई भूमिका नहीं है। यानी उसने न्यायिक हल पर विश्वास करने से इनकार कर दिया। अब इस आंदोलन ने यह संकेत दिया है कि राजनीतिक कथानक पर मौजूदा शासनतंत्र का जो कंट्रोल था, उसमें सेंध लग गई है। वरना, राकेश टिकैत के आंसू इतनी जल्दी इतना प्रभाव पैदा नहीं करते कि 26 जनवरी की घटनाओं से मनोबल को लगी चोट से आंदोलन उबर जाता। यानी आंदोलन के समर्थन क्षेत्र में लोग अपने मीडिया और अपने स्रोतों सूचनाएं और तस्वीर हासिल कर रहे हैँ। इसी का नतीजा है कि किसान आंदोलन गणतंत्र दिवस की घटनाओं के झटके से उबर कर अधिक ताकत के साथ खड़ा हो गया है। साथ ही अब इसका केंद्र पंजाब- हरियाणा से थोड़ा खिसकते हुए उत्तर प्रदेश की तरफ हो गया है। इस तरह आंदोलन को सिखों और उनके बहाने का खालिस्तानी प्रभाव जैसे प्रचार से जोडऩा अब अधिक कठिन हो गया है। इससे सरकारी खेल पलट गया लगता है। अब सरकार की अगली बाजी या होगी, यह देखने की बात है। वैसे भी कहा जाता है कि लोकतंत्र प्रेशर कुकर की तरह एक सेफ्टी वॉल्व है, जिसमें जब गुबार पैदा होता है, तो उसे निकल जाने का स्वत: मौका मिल जाता है।

इसीलिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में कानून या नीति निर्माण एक साझा प्रक्रिया होती है। उस पर खुल कर बहस होती है और सबकी बात सुनी जाती है। अंतत: किसी की बात पूरी नहीं मानी जाती, लेकिन सबको लगता है कि उसकी सोच को भी जगह मिल गई है। नतीजतन, पूर्णत: संतुष्ट कोई नहीं होता, लेकिन सभी अगली बार अपनी बाकी बात मनवाने के भरोसे के साथ रोजमर्रा की गतिविधियों में जुट जाते हैं। इसीलिए माना जाता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं ध्वस्त नहीं होतीं- यानी उस प्रेशर कुकर की तरह फट नहीं जातीं, जिसकी सीटी जाम हो गई हो। ये बात भारत के मौजूदा सााधारियों के नजरिए से बाहर है। इसलिए वे एकतरफा ढंग से राज्य-व्यवस्था को नए रूप में ढालने में लगे हुए हैं। इस दौरान कदम संवैधानिक या संसदीय प्रक्रियाओं के मुताबिक है या नहीं, वे इसकी भी फिक्र नहीं कर रहे हैं। कुल निष्कर्ष यह है कि लोकतंत्र की बुनियाद जो संवाद और समझौते का नजरिए होता है, उसे आज तोड़ दिया गया है। मेरे रास्ते पर चलो या दूर हो जाओ- के नजरिए से शासन चलाने की कोशिश की गई है। तो इससे जो गुबार अलग-अलग जन समूहों में बन रहा है, उसके लक्षण दिख रहे हैं। असल बात लोगों में बन रहा गुबार है, जिसे समझने की सरकार कोशिश नहीं कर रही है।

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