कोरपोरेट का गुलाम बनने वाला है किसान

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि उनकी सरकार ने जो तीन कृषि विधेयक पेश किए हैं वे किसानों के लिए रक्षा कवच हैं फिर यों विपक्ष इसका विरोध कर रहा है? इस मासूम सवाल पर तो या कहा जा सकता है पर यह जानना जरूरी है कि इस कानून का विरोध सिर्फ विपक्ष नहीं कर रहा है। विपक्ष की नींद तो बाद में खुली, इसका पहले किसानों ने विरोध शुरू किया, जो पूरी तरह से अराजनीतिक था। साथ ही कृषि मामलों के ऐसे विशेषज्ञ विरोध में पहले उतरे जिनकी किसानों के हितों के लिए प्रतिबद्धता बेदाग है। कृषि से जुड़े तीनों विधेयक जो संसद से पास हो चुके हैं अगर गुण-दोष पर विचार करके उनकी आलोचना करने से पहले इसके विरोध के तीन आधार हैं। पहला आधार सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड है। सरकार ने अब तक मास्टर स्ट्रोक किस्म के जितने फैसले किए हैं और जितनी नीतियां बनाई हैं वे अंतत: विध्वंसक साबित हुई हैं। इस सरकार की नीतियों ने सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं का किया, जिनके हित के लिए नीतियां बनाई गईं। नोटबंदी से लेकर जीएसटी और हाल में हुए लॉकडाउन तक के फैसले से इस ट्रैक रिकॉर्ड को समझा जा सकता है। यह सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड है कि वह नीतियों के बारे में सलाह मशविरा करने में ज्यादा यकीन नहीं करती है और नीति लागू करने के मामले में सबको चौंका देने की सोच रखती है यानी अचानक नीतियों को लागू करती है। विरोध का दूसरा आधार सरकार की मंशा है। सरकार की मंशा पर सवाल इसलिए है क्योंकि उसने इतने अहम कानूनों को अध्यादेश के जरिए लागू किया और वह भी कोरोना वायरस के संकट के बीच, बिना किसी हित समूह से बात किए।

कोरोना वायरस का संकट जब चरम पर था तब जून के महीने में सरकार ने अचानक अध्यादेश के जरिए तीन कानून बना दिए। उससे पहले उसने किसी भी विपक्षी पार्टी, किसान संगठन या कृषि के जानकारों से बात करने की जरूरत नहीं समझी। अब प्रधानमंत्री सहित भाजपा के सारे नेता कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में यह बात लिखी थी। सवाल है कि या नरेंद्र मोदी की सरकार कांग्रेस का घोषणापत्र लागू करने के लिए बनी है? विरोध का तीसरा आधार दो विधेयकों को राज्यसभा से पास कराने के तरीके पर है। राज्यसभा में सरकार ने जोर-जबरदस्ती बिल पास कराया है। विपक्ष की वोटिंग की मांग को खारिज करके हंगामे के बीच ध्वनिमत से बिल पास हुआ है। सरकार की यह हड़बड़ी और जोर-जबरदस्ती सवाल खड़े करती है। जब प्रधानमंत्री ने किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था तब इन कथित सुधारों की जल्दबाजी नहीं दिखाई गई थी। पर इस जल्दबाजी को पिछले साल नवंबर में दिल्ली में हुए इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑन एग्रीकल्चरल स्टैटिस्टिस के आठवें सम्मेलन में बिल गेट्स के शामिल होने और इस साल बिग बैंग के साथ रिलायंस समूह के रिटेल कारोबार में उतरने की खबर के साथ जोड़ कर देखेंगे तो कुछ कनेशन समझ में आएगा। अब इन तीन विधेयकों में से पहले विधेयक के मेरिट यानी गुण-दोष पर विचार करते हैं। सरकार ने जो तीन विधेयक पेश किए उनमें से पहला विधेयक फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) बिल 2020 है।

इसको सरल शब्दों में एपीएमसी कानून यानी सरकारी अनाज मंडियों में सरकार द्वारा तय किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य, एमसीपी के आधार पर होने वाली खरीद-फरोख्त की व्यवस्था को बदलने वाला बिल कहा जा रहा है। इस बिल में यह प्रावधान किया जा रहा है कि किसान अपनी फसल जहां चाहे वहां बेच सकता है। यानी वह सिर्फ सरकारी अनाज मंडियों में अपनी फसल बेचने को बाध्य नहीं है। वह इसे खुले बाजार में बेच सकता है। अपने जिले से बाहर और यहां तक कि अपने राज्य से बाहर ले जाकर भी बेच सकता है। प्रधानमंत्री इसे एक देश एक बाजार बता रहे हैं। सवाल है कि कितने किसान ऐसा कर सकते हैं और इससे किसान को या फायदा होगा? अगर सरकार के अपने आंकड़े को मानें, जो शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट पर आधारित है तो देश में सिर्फ छह फीसदी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था का लाभ मिलता है। यानी 94 फीसदी किसान पहले से ही अपनी फसल खुले बाजार में बेचते हैं। या इन 94 फीसदी किसानों की स्थिति उन छह फीसदी किसानों से बेहतर है, जिनको एमएसपी की व्यवस्था का लाभ मिलता है? जवाब बिल्कुल उलटा है। छह फीसदी किसान अपेक्षाकृत ज्यादा खुशहाल हैं। पीएम ने बिहार में चुनाव से पहले थोक में हो रहे उदघाटन व शिलान्यास के एक कार्यक्रम में बड़े गर्व से कहा कि नीतीश कुमार ने 2006 में जिस व्यवस्था को बिहार में लागू किया था उसे वे पूरे देश में लागू कर रहे हैं। नीतीश कुमार ने 2006 में बिहार में बाजार समितियों की व्यवस्था खत्म कर दी थी।

अब कोई पूछे कि बिहार में 2006 में जो नई व्यवस्था लागू हुई या उससे किसानों को फायदा हुआ? या किसान की फसल भारत सरकार की ओर से तय किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा कीमत पर बिक रही है? अगर नहीं तो फिर कैसे यह उम्मीद की जा रही है कि इससे देश के किसानों को मंडी में मिलने वाली कीमत से ज्यादा कीमत खुले बाजार में मिलेगी? यह तथ्य नोट करके रखें कि बिहार में किसान की औसत आय सात हजार रुपए है और पंजाब में किसान की औसत आय 21 हजार रुपए है। इसका मतलब है कि एमएसपी की व्यवस्था जहां है वहां किसानों की आय तीन गुना ज्यादा है। फिर यों प्रधानमंत्री उस व्यवस्था को खत्म करके बिहार की व्यवस्था को देश भर में लागू करने की बात कर रहे हैं? अगर सरकार किसान की आय बढ़ाने के लिए सचमुच गंभीर है और उसको लग रहा है कि वह सरकारी मंडियों की व्यवस्था पूरे देश में नहीं लागू कर सकती है तो फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को हर खरीद-फरोख्त पर यों नहीं लागू कर देती है? सरकार यह कानून बना दे कि जो भी एमएसपी तय की जाएगी उससे कम कीमत पर कहीं भी अनाज की खरीद-बिक्री नहीं होगी। अभी सरकार कह रही है कि वह एमएसपी की व्यवस्था जारी रखेगी और उसके साथ-साथ किसानों को खुले बाजार में अनाज बेचने की सुविधा मिल रही है।

यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे बीएसएनएल को चालू रखते हुए निजी मोबाइल कंपनियों को मंजूरी दी गई थी या एयर इंडिया को चालू रखते हुए निजी विमानन कंपनियों को मंजूरी दी गई थी। इस कानून में निजी कंपनियों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद करने की बाध्यता नहीं है। वे मंडियों पर राजनीतिक दबाव बना कर या पैसे के दम पर खरीद रूकवा सकती हैं क्या खरीद में देरी करा सकती हैं या तत्काल भुगतान का लालच देकर किसानों की फसल आधे दाम पर खरीद सकती हैं। यह भी हो सकता है कि निजी कंपनियां अपनी मंडियों में शुरू के दिनों में किसानों को एमएसपी से भी ज्यादा दाम देने लगें। पर वह जाल बिछा कर दाना डालने के जैसा होगा। किसान उसमें फंसे तो धीरे धीरे, जहां भी सरकारी मंडियों की व्यवस्था है वह बंद हो जाएगी और फिर सरकार भी यह कहते हुए एमएसपी की व्यवस्था को खत्म कर सकती है कि अब तो बाजार में वैसे ही एमएसपी से ज्यादा कीमत मिल रही है तो इसकी जरूरत या है? और उसके बाद या होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। यह कानून किसान को पूरी तरह से बड़ी कंपनियों के रहमो-करम पर छोडऩे वाला है। किसान को कॉरपोरेट का गुलाम बनाने वाला है।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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