सरकार के तमाम अडंग़ों के बाद भी किसान आंदोलनकारियों की मांगों के समर्थन में आहुत ‘भारत बंद’ असफल नहीं रहा। हर मर्ज की दवा रखने वाले गृहमंत्री शाहजी आंदोलनकारी किसानों के 13 नेताओं को अलग से बिठाकर भी मनाने-समझाने में सफल नहीं हो सके। शाह जी के पास तमाम तरह की घुट्टियां हैं, उन्होंने जरूर उनमें से कुछेक को किसान नेताओं को पिलाने का प्रयास तो किया ही होगा, लेकिन असफलता हाथ लगी। किसानों को सरकार का प्रस्ताव मिल चुका है और किसान नेता उस प्रस्ताव पर गहन चिंतन-मंथन कर रहे होंगे। यह तो निश्चित है कि सरकार ने जो प्रस्ताव या यूं कहें कि समस्या का समाधान पेश किया होगा, उसमें किसानों की तीनों कृषि कानूनों को वापस लिये जाने की मांग स्वीकार किये जाने की बात तो नहीं ही होगी। इसका अर्थ यह है कि गतिरोध-भंग की संभावना कम ही है, क्योंकि किसानों को कृषि कानूनों को रद्द किये जाने से कम कुछ भी मान्य नहीं है। बहरहाल आंदोलनकारी किसानों को सरकार के प्रस्ताव का उत्तर तो देना ही है, तभी तो आगे कोई समझौता वार्ता संभव है।
वैसे 13 किसान नेताओं को न्योत कर अलग से बैठक करने को शाह जी की आंदोलनकारी संगठनों में फूट डालने के प्रयास के रूप में भी देखा जा रहा है। इस बात में कितनी सच्चाई है वह भी एक- दो दिन में सामने आ जाएगी। एक खबर है कि 66 साल में एवरेस्ट चोटी करीब एक मीटर ऊंची हो गई है। आंदोलनकारी किसानों के हौसले भी एवरेस्ट की ऊंचाई से हालफिलहाल तो टक्कर ले रहे हैं-कल क्या होगा, कौन जाने? नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत को लग रहा है कि भारत में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है, इसलिये कड़े सुधार लागू करना कठिन है। कांत ने यह बात एक कार्यक्रम में बोलते हुए कही। लोकतंत्र तो लोकतंत्र होता है, इसे कम या ज्यादा लोकतंत्र में कैसे विभाजित किया जा सकता है। क्या इस जुमले का अर्थ यह नहीं हो सकता कि भारत के तथाकथित ‘ज्यादा लोकतंत्र’ को तानाशाही के हंटर से हांकने की तैयारी हो रही है। किसान आंदोलन के समर्थन में आयोजित हुए भारत बंद के दौरान विपक्ष के नेताओं को घरों में नजरबंद किया जाना क्या लोकतांत्रिक अधिकारों का खुला हनन नहीं है? क्या अब सरकार तय करेगी कि कौन किस आंदोलन का समर्थन या विरोध करेगा, कर पाएगा?
इस सरकारी निर्णय के पक्ष में दलील दी जा सकती है कि किसान आंदोलन के समर्थक राजनीतिक दलों के नेता बाहर निकलेंगे तो शांति भंग होने का गंभीर संकट पैदा हो सकता है। आशंका के चलते तो किसी के अधिकार नहीं छीने जाने चाहिएं। सरकार ऐसी व्यवस्था रखे कि कोई बाहर निकलकर भी शांति भंग करने के बारे में सोच न सके। बंद के समर्थन में बंद दुकानों को जबरन खुलवाने की छूट सााधारी दल के नेताओं- कार्यकर्ताओं को दी जा सकती है तो फिर खुली दुकानों को बंद कराने का आग्रह करने से विपक्षी दल के नेताओं को रोके जाने का क्या औचित्य है? शांति भंग होने की आशंका तो दोनों ही स्थिति में फिफ्टी-फिफ्टी ही है। वैसे आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच गतिरोध समाप्त होता लग नहीं रहा है क्योंकि किसान नेताओं ने शाह जी से मुलाकात के बाद भी यही दोहराया है कि-‘हम संशोधन नहीं चाहते। हम चाहते हैं कि इन कानूनों को रद्द किया जाए। यहां बीच का कोई रास्ता नहीं है। दूसरी तरफ गृहमंत्री शाहजी ने भी साफ-साफ ही कहा है कि सरकार कृषि कानूनों को रद्द नहीं करेगी। मतलब किसान आंदोलन अभी खत्म होने नहीं जा रहा है। कशमकश-असमंजस जारी रहेगा।’
राकेश शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)