भारत जिस गंभीर स्वास्थ्य संकट का सामना कर रहा है, उसने देश के सबसे लोकप्रिय नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शायद अलोकप्रिय तो नहीं बनाया, लेकिन एक बहुत बड़े वर्ग को निराश जरूर किया, जिसने उन्हें हमेशा प्रेरक नेता के रूप में देखा है। जिस बात ने उनकी छवि को चोट पहुंचाई है, वह बंगाल में चुनाव प्रचार करते रहना है।
कोविड के मामले बढ़ रहे थे, ऑक्सीजन की मारामारी थी, लेकिन केंद्र सरकार इस पर चुप्पी साधी रही। प्रधानमंत्री ने बाद में अपनी रैलियां स्थगित करके कुछ हद तक डैमेज कंट्रोल की कोशिश की। लेकिन, प्रधानमंत्री द्वारा रैलियां स्थगित करने के कुछ घंटों के भीतर ही चुनाव आयोग द्वारा बड़ी रैलियों पर प्रतिबंध की घोषणा से लोगों को फिर निराशा हुई, क्योंकि उन्हें लगा कि प्रधानमंत्री का निर्णय आयोग के फैसले से प्रेरित था, जिसकी उन्हें पहले से जानकारी थी।
जिस बात ने लोगों को निराश किया, वह प्रधानमंत्री द्वारा कोविड संकट के समाधान के लिए देर से सक्रिय होना रहा, जबकि देश एक के बाद दूसरे संकट में घिर रहा था। लोगों के सामने अस्पतालों में भर्ती होने का संकट था, जो ऑक्सीजन की कमी से और जटिल हो गया। जब देश इन संकटों का सामना कर रहा था, तब लोगों ने प्रधानमंत्री को रैलियां करते देखा।
पिछले साल कोविड आने पर मोदी ने राज्यों से चर्चा किए बिना ही देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी। इसपर उनकी आलोचना हुई थी, लेकिन इसके बावजूद भारत में कोविड के प्रसार को रोकने के लिए साहसिक फैसला लेने के लिए कुल मिलाकर उन्हें प्रशंसा ही मिली थी।
अब जब लोग इस संकट के समय नेतृत्व के लिए प्रधानमंत्री की ओर देख रहे थे तो उन्होंने संक्षेप में देश को संबोधित किया, जिसने आम लोगों को निराश ही किया। पिछले संकटकाल में प्रधानमंत्री ने अग्रिम मोर्चे से नेतृत्व किया, कई बार राष्ट्र को संबोधित किया यह सत्य है कि केंद्र सरकार विदेशों से कोविड वैक्सीन और ऑक्सीजन मंगाने सहित अनेक कदम उठाकर मौजूदा संकट के समाधान के लिए पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन ये कदम पहले उठाने चाहिए थे।
यद्यपि, केंद्र सरकार ने ये सभी कदम उठाए हैं, लेकिन साथ ही उसने हमेशा ही स्वास्थ्य को राज्यों का विषय बताते हुए उन पर ही जिम्मेदारी डाली है और मौजूदा संकट के लिए राज्यों को दोषी करार दिया है। यहां महत्वपूर्ण है कि संविधान के प्रावधानों में परिवर्तन नहीं हुआ है और स्वास्थ्य पिछले साल भी राज्य का विषय था और इस बार भी है। फिर पिछले साल केंद्र ने सारी प्रशंसा खुद क्यों बटोरी और इस बार दोष राज्यों पर मढ़ने की कोशिश कर रहा है।
इस मसले को जो बात और जटिल बनाएगी और केंद्र सरकार (लोग उसे भाजपा का ही पर्याय समझते हैं) और प्रधानमंत्री मोदी के प्रति निराशा को और बढ़ा सकती है, वह है कोविड वैक्सीन की कीमत पर विवाद। पहले इस बात की खबरें थीं कि वैक्सीन की कमी है और भारत कई देशों को इसका निर्यात कर रहा है। लेकिन राज्यों और केंद्र को वैक्सीन की अलग-अलग कीमत पर तू-तू-मैं-मैं और बढ़ सकती है।
कीमतों में अंतर समझ में आता है, अगर यह सरकारी और निजी अस्पताल के बीच हो, लेकिन आम आदमी यह नहीं समझ पा रहा कि अगर वह राज्य सरकार की खरीदी वैक्सीन लगाएगा तो उसे महंगी पड़ेगी और केंद्र की लगवाएगा तो सस्ती पड़ेगी।
जो बात लोगों को नाराज कर रही है, वह है केंद्र द्वारा वैक्सीन की कीमत के लिए सीरम इंस्टीट्यूट के साथ सौदेबाजी की पहल न करना और राज्यों को खुद कीमतों पर सौदेबाजी की सलाह देना। सवाल यही है कि केंद्र इस बारे में खुद पहल क्यों नहीं कर सकती?
मिलकर काम करने का वक्त यह कोई सामान्य स्वास्थ्य संकट नहीं है, यह वैश्विक महामारी है। इस बारे में सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है या नहीं या कुछ राज्यों से तैयारियों में गलती हो सकती है, दोष राज्यों पर नहीं मढ़ा जाना चाहिए। यह कई राज्यों पर भी लागू होता है। यह समय राज्यों और केंद्र के मिलकर काम करने का है।
संजय कुमार
( लेखक सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएडीएस) में प्रोफेसर और टिप्पणीकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)