सो, नेहरूवाद ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है?

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो सर्वोच्च नेताओं ने कहा कि दिवंगत पूर्व-राष्ट्रपति एवं कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी ‘‘संघ के मार्गदर्शक जैसे थे और उन का जाना आर.एस.एस. के लिए अपूरणीय क्षति है।’’ इस बयान ने संघ के सांस्कृतिक चरित्र को नया अर्थ दिया है, अथवा पुराने आरोप की फिर पुष्टि की। यह आरोप कि संघ की सांस्कृतिक चिन्ता में गुणवत्ता का कोई स्थान नहीं। यानी संस्कृति का नाम तो लें, पर वह दुर्गति में भी रहे तो चलेगा। यही आरोप दूसरे तरह से यह रहा है कि उन की सांस्कृतिक चिन्ता ऊपरी बात है, मुख्य बात केवल राजनीति है।

आखिर एक पुराने नेहरूवादी को आर.एस.एस. का ‘मार्गदर्शक जैसा’ कहा कोई अलंकारिक कथन नहीं। इस में एक ओर तो यह भाव कि एक बड़े कांग्रेसी नेता भी आर.एस.एस. को नीचा नहीं देखते थे, जो अजीब लगता है कि पूरे देश की सत्ता एकछत्र हाथ में लेकर भी किसी को विरोधियों से सर्टिफिकेट पाने की चाह हो! दूसरे, एक पक्के कांग्रेसी नेता को ‘मार्गदर्शक’ कहकर मानो खुद मुहर लगा दी गई कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी वही चीज है, जो नेहरूवाद है। वरना हिन्दू संस्कृति के महान पथ पर चलने के लिए रामानुजाचार्य, समर्थगुरू रामदास, स्वामी विवेकानन्द, श्रीअरविन्द से लेकर राम स्वरूप, सीताराम गोयल तक मनीषियों की पूरी श्रृंखला उपलब्ध है। जिन का गौरव दीर्घकालीन है और रहेगा। जबकि राजनेताओं के नाम देहांत के चार बरस बाद भी नहीं टिकते। राजकीय प्रचार बल से भी कुछ ही समय तक, जब तक प्रचार चलता रहे। खुद नेहरू इस के उदाहरण हैं, जिन की छवि गर्दिश में है क्योंकि सत्ता-प्रचार बंद हो गया है।

किन्तु कितना विचित्र जिस नेहरू को बुरा-भला कहने में यही संघ-भाजपा उत्साहित रहती है, वही दूसरी साँस में नेहरूवादियों को अपना मार्गदर्शक बताने में गौरव करते हैं! यह सच है कि प्रणव मुखर्जी ने आर.एस.एस. के नागपुर कार्यक्रम (7 जून 2018) में मार्गदर्शक जैसा ही व्याख्यान दिया था। परन्तु उन्होंने राष्ट्रवाद की जो व्याख्या की थी, वह शत-प्रतिशत नेहरूवादी पाठ था। आप उसे सुन सकते हैं, जो इंटरनेट पर मौजूद है। उस में क्या मार्गदर्शन है?

उस व्याख्यान में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द और श्रीअरविन्द का नाम तक नहीं था। जिन दयानन्द को ‘राष्ट्र-पितामह’ और जिन श्रीअरविन्द को ‘भारतीय राष्ट्रवाद के पैगंबर’ की उपाधि दी गई थी। उन के बदले प्रणब जी ने नेहरू का लंबा वक्तव्य उद्धृत किया था। इस सोचे-समझे चयन को न समझने वाले राजनीतिक रूप से दुधमुँहे ही हैं। उक्त तीनों मनीषियों ने ब्रिटिश औपनिवेशिक जुए में दबे भारत को जगा कर, उठा कर पूरे विश्व में सम्मानित किया था। उन लिए सनातन धर्म और भारतीय राष्ट्रवाद समानार्थक पद थे। इस के विपरीत नेहरू के राष्ट्रवाद में यूरोपीय लिबरल भौतिकवाद और खुली हिन्दू-वितृष्णा थी। यही राष्ट्रवादी पाठ प्रणब जी ने आर.एस.एस. को पढ़ाया, जिस का प्रतिवाद तो दूर, वे उन्हीं को मार्गदर्शक कह रहे हैं!

उस व्याख्यान में नेहरूवादी नक्शे-कदम पर इतिहास को भी गलत प्रस्तुत किया गया था। यहाँ अंग्रेजों ने शासन मुगलों से नहीं लिया था। अंग्रेज दस्तों ने मराठों, सिखों और हिन्दू राजाओं को हरा कर ही भारत के मुख्य भागों पर कब्जा किया था। अतः मुगलों को अनुचित गौरवान्वित करना हिन्दुओं को हीन बताने का एक रूप था, जो नेहरू सदैव करते रहे थे। उन्हें न केवल हिन्दू भाव से भारी अरुचि थी, बल्कि वे हर हिन्दू-विरोधी वैचारिक धाराओं के प्रति मित्रवत् थे।

यही नहीं, स्वयं गाँधीजी ने नेहरू को कांग्रेस में ‘एक मात्र अंग्रेज’ भी कहा था। यदि वही अंग्रेज और कम्युनिस्ट नेहरू ही राष्ट्रवाद की समझ के अधिकारी स्त्रोत हुए, तो कहना होगा कि हमारी सांस्कृतिक दशा बदतर हुई है। हम पहले अपने शिक्षकों को जानते थे, चाहे उन की सीख पर चलते नहीं थे। अब हम ने शिक्षकों के नाम भी बदल लिए हैं।इसीलिए, वाया प्रणव जी, हमें देश तोड़ने वालों, इसे आगे भी खंडित करना चाहने वालों और देश के लिए मरने वालों – इन सब को ‘मिला कर चलने’ के उपदेश सुनने पड़ते हैं। आखिर, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगाने, लगवाने वालों ने भी जेएनयू में राष्ट्रवाद पर ही लगातार भाषण दिये थे। उन्होंने भी, कृपया नोट करें, नेहरू का गुणगान किया था और दयानन्द, विवेकानन्द और श्रीअरविन्द को गायब कर दिया था। क्योंकि जो भी चीज हिन्दू या हिन्दू ‘रंगत’ लिए हुए हो, वह नामंजूर है! यही नेहरूवादी राष्ट्रवाद की पहली टेक है।

उस में जोर देकर कहा जाता है कि भारत केवल हिन्दुओं का नहीं है। इसलिए हिन्दू धर्म, हिन्दू मनीषी, हिन्दू संगठन – इन सब के नाम प्रशंसा अनुशंसा में लेना मना है। आशय यह कि भारत और जिस का भी हो, हिन्दुओं का तो नहीं ही है। इसीलिए आप कम्युनिज्म, इस्लाम, क्रिश्चियनिटी, एंटी-ब्राह्मणिजन्म, जेंडरिज्म, गेइज्म, आदि हरेक आइडियोलॉजी का उल्लेख ससम्मान कर सकते हैं। जो एक चीज वर्जित है वह ‘वन्दे मातरम’ तथा ‘सनातन धर्म की जय’।इस प्रकार, प्रणव जी ने जो कहा था उस के अनुसार मानो केवल शुद्ध दूध की बात करना ठीक नहीं है। कोई राष्ट्रीय पेय तभी बन सकता है जब उस में गंदे और नाले के पानी को भी स्थान दिया जाए। यानी, हिन्दू धर्म को मिटाना चाहने या देश को तोड़ना चाहने वालों भारतीय राष्ट्रवाद का हिस्सेदार मानना होगा।

वस्तुतः ऐसे ही विचारों के विरुद्ध भारत के सचेत हिन्दुओं में दुःख और क्षोभ रहा है। हाल के दशकों में उसी को भुनाकर संघ-परिवार सत्ता में आता रहा है। लेकिन क्या विडंबना कि सत्ता में आने पर उसी नेहरूवादी आइडियोलॉजी के नक्शे-कदम पर चलने की कोशिश पूरे उत्साह से होती है। वह भी खूब दिखा-दिखा कर कि लोग, विशेषकर निन्दक लोग, संघ-भाजपा को भी ‘सच्चा सेक्यूलर’ समझें। संभवतः प्रणब मुखर्जी को ऐसी श्रद्धांजलि भी उसी का एक लटका हो।दुर्भाग्यवश, ऐसे लटकों से हिन्दू-विरोधी ताकतों को संजीवनी मिलती है और हिन्दुओं पर घड़ों पानी पड़ता है। पर सत्ता और पार्टीभक्तों का गुमान अधिक भारी पड़ता है। यह सब सब से ज्यादा हिन्दू धर्म-समाज पर भारी पड़ता है। संस्कृति की सच्ची चिंता करने वालों को इसे समय रहते परखना चाहिए।

भारतीय या हिन्दू संस्कृति किसी राजनीतिक पार्टी या आइडियोलॉजी से जुड़ी हुई नहीं है। राजनीतिक दल विश्व में कोई दो सौ साल से हैं। किन्तु हाल के युग में भारत को सजग, सचेत बनाने वाले किसी मनीषी ने पार्टी या आइडियोलॉजी को महत्वपूर्ण नहीं माना। इसे महत्व देना नेहरूवाद की देन है जिस ने समाजवाद, सेक्यूलरवाद, आदि नाम पर इसे ऊँचा उठाया।सारतः नेहरूवाद तमाम हिन्दू-विरोधी साम्राज्यवादी विचारों का समवेत रूप है। इसीलिए, उस में हिन्दू धर्म, परंपरा को छोड़ कर हर विचार को स्थान मिला है। फलतः यहाँ सारे हिन्दू-विरोधी नेहरूवाद के झंडाबरदार हैं। यह दुर्भाग्य ही है कि जिन्हें ‘हिन्दूवादी’ कह कर ही निशाना बनाया जाता है, वे भी नेहरूवादी नारे दुहराते और नेहरूवादियों को अपना मार्गदर्शक कहते हैं। इस से उन की इज्जत तो क्या बढ़ेगी, हिन्दू धर्म-समाज की मिट्टी जरूर पलीद होती है।

शंकर शरण
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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