केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों के विरोध में पिछले सात महीने से आंदोलन कर रहे किसानों के साथ सरकार एक बार फिर बातचीत शुरू करने की तैयारी में है। आंदोलन कर रहे किसानों के साथ आखिरी बार 22 जनवरी को बातचीत हुई थी। उसके बाद गणतंत्र दिवस के दिए दिल्ली में हुए हंगामे के बाद बातचीत बंद हो गई। तब से प्रधानमंत्री और केंद्रीय कृषि व किसान कल्याण मंत्री ने कई बार कहा है कि किसानों से बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन वार्ता नहीं शुरू हुई। फिर कृषि मंत्री ने अचानक यह शर्त रख दी कि कानूनों को रद्द करने के अलावा हर मुद्दे पर बातचीत के लिए सरकार तैयार है। अब खबर है कि सरकार वार्ता शुरू करके अंतिम समाधान निकालने की तैयारी में है और इसका कारण उार प्रदेश का चुनाव है। जानकार सूत्रों के मुताबिक उार प्रदेश से भाजपा को बहुत निगेटिव फीडबैक मिली है। भाजपा के नेता और संघ के पदाधिकारी लगातार उार प्रदेश की फीडबैक ले रहे हैं और उनको बताया गया है कि किसानों के आंदोलन का मुद्दा पार्टी को भारी पड़ सकता है। ध्यान रहे करीब दो हते पहले भाजपा के संगठन महामंत्री बीएल संतोष और पार्टी के प्रभारी राधामोहन सिंह लखनऊ गए थे और पार्टी के विधायकों, मंत्रियों से अलग अलग बात की थी।
कहा जा रहा है कि लगभग सभी ने किसान आंदोलन खत्म कराने की जरूरत बताई। उार प्रदेश की ही तरह पंजाब और हरियाणा से भी पार्टी को यही फीडबैक मिली है। पंजाब में भी अगले साल चुनाव होने वाले हैं। हरियाणा में चुनाव नहीं है लेकिन पार्टी की सरकार पर दबाव है। सरकार की सहयोगी जननायक जनता पार्टी के अंदर अनेक विधायकों ने किसान आंदोलन खत्म कराने को कहा है। हालांकि हरियाणा सरकार के बारे में भाजपा में धारणा है कि सरकार को खतरा नहीं है और जहां तक पंजाब की बात है तो वहां भाजपा चुनाव जीतने की उम्मीद नहीं कर रही है। इसलिए पंजाब और हरियाणा की बजाय उार प्रदेश की चिंता में किसानों से बात करने की तैयारी है। इस बीच किसानों की ओर से सरकार को ऐसे संदेश दिए गए हैं, जिनसे लग रहा है कि वे बातचीत के लिए तैयार हैं और सरकार के प्रति सदभाव दिखाने के लिए भी तैयार हैं। आंदोलन कर रहे किसानों ने 26 जून को इमरजेंसी की बरसी पर इसके विरोध में प्रदर्शन की योजना बनाई है। इससे भाजपा के नेता खुश हैं। दूसरे, संयुक्त किसान मोर्चे के अंदर कई खेमे बन गए हैं। कम से कम तीन नेता अपनी अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं। सरकार इस स्थिति का भी फायदा उठाने की सोच रही है।
किसानों को लगातार ये डर रहा कि इन कानूनों के जरिए देश में कॉर्पोरेट सेक्टर खेती संभालेगा। इन कानूनों से किसानों को नहीं बल्कि सिर्फ बड़ी कंपनियों और अमीरों को फायदा होगा। अगर किसान की खेती भी चली गई तो किसान कहां जाएगा? वैसे भी इस समय पूरा देश बंटा हुआ है। एक पक्ष किसानों को नुकसान पहुंचाकर अमीरों को फायदा पहुंचाना चाहता है और दूसरा अमीरों की परवाह किए बिना किसानों के साथ खड़ा है। लेकिन हकीकत यही है कि समस्याओं का हल सिर्फ बातचीत से किया जा सकता है। कुछ नेता किसानों का इस्तेमाल अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। वामपंथी और कांग्रेसी गतिरोध खत्म होने में अड़चन डालने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन फिर वही सवाल उभरता है कि अगर किसान अपनी तीनों मांगों से पीछे नहीं हटे तो क्या फिर पुराना राग दोहराया जाएगा? फिर भी अगर बात होने ही जा रही है तो सरकार को भी थोड़ा लचीला होना होगा। तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की संभावनाओं पर बातचीत हो। मिनिमम सपोर्ट प्राइस की कानूनी गारंटी बातचीत के एजेंडे में रहे। देखना यही है कि क्या होता है? अगर बात होती है तो निसंदेह ये अच्छी खबर है।