कोरोना के कहर ने पूरी दूनिया के कदमो को रोका लेकिन भारत में इसका एक अलग ही चेहरा देखने को मिला। अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए कुछ लोगों को इसका जिम्मेदार ठहराया गया, तो कभी उन्हे बहिष्कृत करने की सलाह दे डाली गई। भारत में कोरोना ने समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था और जातिगत सरंचना के ढांचे को एक बार फिर खुद से सवाल करना होगा कि आखिर मनुष्य कौन है, जिसने अपनी सुविधा के लिए मन मुताबिक नियम बना डाले, जबकि प्रकृति ने कोई भेदभाव रखा ? उसने मान लिया जैसे श्रेष्ठ है और सबको ऊंच-नीच के जाल में बांट दिया? भारतीय जातीय संरचना के संदर्भ में यह बात और भी सार्थक लगती है कि जैसे एक जाति विशेष ने अपने आप को देवता की श्रेणी में रखा और कुछ को जानवर की श्रेणी से भी नीचे रखा, जहां उसे छूने की मनाही थी, साथ बैठने की मनाही थी, और तो और उसकी परछाईं से भी एतराज था। जैसे कुछ मुट्ठी भर लोगों ने खुद को महाशक्तिमान मान जाति और नस्ल बनाकर रंगभेद करते हुए मनभेद को जन्म दिया? ताकतवर लोगों ने प्राकृतिक संसाधनों पर भी अपना वर्चस्व कायम करने के लिए उन पर कब्जा किया, जो आज भी जारी है।
जिन्हे वंचित रखा, वे आज भी वंचित हैं। जबकि समानता के लिए जरूरी है कि संसाधनों का समान बंटवारा हो। हजारों साल से समाज का एक वर्ग इसे नियति मानकर झेलता आया है और कभी इससे बाहर नहीं निकल पाया। दिन बदले, महीने बदले, सदियां बदलीं, पर नहीं बदला तो अस्पृश्यता का यह स्वरूप, जिसके चलते अब नफरत इतनी बढ़ गई है कि आज लिंचिग कर इंसान ही इंसान को मारने लगा है। ऐसा नहीं है कि महामारियां पहले कभी नहीं आईं, लेकिन इस महामारी ने इंसान को सही मायनों में उसका अस दिखा दिया। सभी मानकों में उलटफेर कर इस अदृश्य दुश्मन ने बता दिया कुछ भी स्थायी नहीं है। जो यह समझते थे कि दुनिया उनकी मुट्ठी में है, उन सबके भ्रम पल भर में धराशायी हो गए। आज कोरोना की महामारी में जिस तरह इंसान को अस्पृश्यता झेलनी पड़ रही है, एक-दूसरे से अलग रहना पड़ रहा है, एक दूसरे को छूने से भी बच रहे हैं, हमें याद करना होगा वह दौर, जब इंसान को जातियों और वर्ण व्यवस्थाओं में जकड़कर छुआछूत के नाम पर प्रताडि़त किया जाता रहा और कई जगह तो यह आज भी जारी है। क्यों न कोरोना के बहाने ही हम सीख लें कि जब वह जाति, धर्म, रंग या लिंग में भेद नहीं कर रहा तो हम यों करें?
लेकिन अफसोस कि आज भी क्वारंटीन किए गए कुछ लोगों पर जातिगत भेदभाव इस कदर हावी है कि वह किसी दलित के द्वारा पकाए गए भोजन को खाने से इनकार कर देते हैं। ये इस देश की विडंबना ही है कि बुद्ध के मध्यम मार्ग पर चलने के बजाए आज देश का बड़ा हिस्सा छुआछूत और अस्पृश्यता की राह पर है। अगर यह महामारी भी इस देश के अधिकतम लोगों से जातिवाद का जहर न निकाल पाई, तो यकीन मानिए एक ऐसा सैलाब आएगा जो सब कुछ बहा ले जाएगा। कोविड-19 ने लोगों की आस्था और विश्वास को भी झकझोरा है। भारत में लोग फिजिकल डिस्टेंसिंग को उतनी गंभीरता से लेते हुए दिखाई नहीं दे रहे, जितनी सहजता सामाजिक दूरी को बढ़ाने में दिख रही है। एक संवैधानिक पद पर होते हुए मुझे इस बात की बेहद पीड़ा होती है कि जातियों से ग्रसित यह समाज कब एक होगा? कब एक पक्षी की तरह जातियों के बंधन से मुक्त होकर हम सब खुले आसमान में सांस लेंगे? कब हम समान भाव से एक दूसरे को स्वीकार करेंगे? कब सबको एक जैसे समान अवसर प्रदान करेंगे और कब हम समता के मूलभूत अधिकार, आर्टिकल 15 को मूल रूप से स्वीकारेंगे? आखिर कब?
राजेंद्र पाल गौतम
(लेखक दिल्ली सरकार में समाज कल्याण मंत्री हैं)