भारत में हर चीज पर राजनीति होती है। कोरोना वायरस पर भी हुई है और वैसीन पर भी शुरू हो गई है। कम से कम वैक्सीन को लेकर बन रहे राजनीतिक नारों से तो ऐसा लग रहा है कि पार्टियां इसका अपने हक में इस्तेमाल करने लगी हैं। भाजपा और आम आदमी पार्टी ने वैक्सीन को लेकर जो नारा बनाया है वह शुद्ध रूप से राजनीतिक है। आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार ने वैक्सीनेशन की रफ्तार तेज करने के लिए राजधानी में एक अभियान शुरू किया, जिसका नाम दिया- जहां वोट, वहां वैक्सीनेशन! इसका मतलब यह है कि जहां लोगों ने वोट डाले वहां पर यानी पोलिंग बूथ पर वैक्सीन लगेगी। लेकिन इसके साथ ही इस नारे ने स्पष्ट रूप से वैक्सीन को वोट से जोड़ दिया। यह अलग बात है कि अभी तक यह सिर्फ नारा ही है क्योंकि हर पोलिंग बूथ पर वैक्सीन लगने की बात तो छोड़ें, वैक्सीन की कमी के कारण पहले से बनाए गए वैक्सीनेशन सेंटर भी बंद हो रहे हैं। बहरहाल, केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने भी सेवा की संगठन योजना के तहत वैक्सीन की रफ्तार बढ़ाने के लिए एक नारा गढ़ा- मेरा बूथ टीकाकरण युक्त।
यह अरविंद केजरीवाल की पार्टी के दिए नारे का ही नया रूप है। असल में भाजपा इस नारे और इस अभियान के जरिए अपनी बूथ कमेटी को मजबूत कर रही है। भाजपा जिस तरह से चुनाव के समय शक्ति केंद्र और पन्ना प्रमुख आदि के सहारे हर बूथ पर रजिस्टर्ड मतदाताओं से संपर्क करती है और उन्हें मतदान केंद्र तक लाती है उसी टीम के सहारे अब लोगों को वैक्सीनेशन कराने का अभियान शुरू किया गया है। इससे भाजपा की अपनी बूथ कमेट को भी काम मिला रहेगा और दूसरे पार्टी के प्रति मतदाताओं का भरोसा भी बढ़ेगा। निजी अस्पतालों का अभियान विफल: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र को संबोधित किया और सबको मुफ्त वैक्सीन लगाने की बात कही तो ऐसा प्रचारित किया गया कि देश के हर नागरिक को केंद्र सरकार मुफ्त वैक्सीन लगवाएगी। पर असल में ऐसा नहीं है। केंद्र सरकार पहले कुल उत्पादन का 50 फीसदी वैसीन खरीदती थी, इसे बढ़ाकर प्रधानमंत्री ने 75 फीसदी कर दिया। इसके अलावा बचा हुआ 25 फीसदी वैक्सीन ऊंची कीमत पर निजी अस्पतालों को खरीदना है।
सवाल है कि जब सरकार सभी नागरिकों को मुफ्त में वैक्सीन लगवाएगी तो 25 फीसदी वैक्सीन निजी अस्पतालों को देने का या मतलब बनता है? मई के वैक्सीनेशन के आंकड़ों से भी यह बात साबित हुई है कि निजी अस्पतालों को ज्यादा वैक्सीन देने की जरूरत नहीं है। मई के महीनों में देश के निजी अस्पतालों को एक करोड़ 29 लाख वैक्सीन दी गई थी, लेकिन पूरे महीने में सिर्फ 22 लाख लोगों ने निजी अस्पतालों में वैक्सीन लगवाई। यानी एक करोड़ सात लाख वैक्सीन बच गई। दूसरी ओर सरकारी केंद्रों पर वैक्सीन नहीं होने की वजह से उन्हें बंद करना पड़ा। मई के मुकाबले अब तो वैक्सीन की कीमत भी बढ़ गई है। इसलिए अब निजी अस्पतालों में और भी कम लोग वैक्सीन लगवाएंगे। इसलिए सरकार को 25 फीसदी का काटो तत्काल खत्म करना चाहिए। 90-95 फीसदी वैक्सीन केंद्र सरकार खरीदे। निजी अस्पतालों का काम पांच-दस फीसदी वैक्सीन से भी चल जाएगा। मौत का आंकड़ा कितना होगा: भारत सरकार ने अमेरिकी और भारतीय विशेषज्ञों के इस साझा अध्ययन को खारिज किया है कि भारत में 24-25 लाख लोगों को मौत हुई है। सरकार का कहना है कि उसका डाटा प्रमाणिक है।
हालांकि पिछले दिनों बिहार अचानक राज्य सरकार ने मौत का डाटा एडजस्ट किया तो एक दिन में 39 सौ से ज्यादा लोगों के मरने की खबर दी। इसका मतलब है कि राज्य सरकार पहले से मौतें छिपा रही थी। बिहार में जिस दिन 39 सौ लोगों के मरने की खबर दी गई उससे पहले राज्य में कुल 55 सौ लोगों की मौत का आंकड़ा था, जो एक दिन में बढ़ कर 94 सौ हो गया। यानी कुल आंकड़ों में 40 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई। मौत के आंकड़ों का इसी तरह का एडजस्टमेंट महाराष्ट्र में हो रहा है। पिछले तीन दिन से लगातार वहां दो हजार के करीब लोगों की मौत की खबर आ रही है। महज 10 हजार केस आ रहे हैं और दो हजार लोगों के मरने की खबर आ रही है। जाहिर ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि पहले के आंकड़े अब जोड़े जा रहे हैं। ऐसे ही खबर आई है कि मध्य प्रदेश में मई के महीने में एक लाख 70 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई है, जबकि राज्य सरकार ने कोरोना से मौत सिर्फ साढ़े पांच हजार के करीब बताई है। तभी सवाल है कि मौत का वास्तविक आंकड़ा कैसे सामने आएगा? इसका तरीका यह है कि बिहार और महाराष्ट्र की तरह सभी राज्य मौत के आंकड़ों को एडजस्ट करें। इससे थोड़ी बहुत तस्वीर साफ होगी।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)