अडानी को बचाने का खेला

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अडानी समूह की मुश्किलें बढ़ रही हैं। श्रीलंका सरकार ने कोलंबो में इस्टर्न कंटेनर टर्मिनल का करार रद्द कर दिया है। यह करार बुनियादी रूप से श्रीलंका, भारत और जापान के बीच हुआ था, जिसके तहत कोलंबो में एक टर्मिनल विकसित किया जाना था। जिस तरह से भारत में हर दूसरे बंदरगाह का काम अडानी समूह को मिलता है उसी तरह से श्रीलंका में भी करार उनको मिल गया। पर अब वहां की सरकार ने यह करार रद्द कर दिया है और भारत की ओर से तमाम लॉबिंग के बावजूद श्रीलंका सरकार ने कहा है कि कंपनी ने उसकी शर्तें मानने से इनकार कर दिया, इसलिए उसने करार रद्द कर दिया। श्रीलंका की सरकार ने अडानी का नाम नहीं लिया लेकिन सबको पता है कि किस कंपनी को करार मिला था, जो रद्द हो गया। भारत की ओर से यह प्रचार है कि चीन के दबाव में यह करार रद्द हुआ है। दोनों ही स्थितियों में किरकिरी देश की होनी है। अगर चीन के दबाव में भारत के पड़ोसी श्रीलंका ने करार रद्द किया है तो यह प्रचार अपने आप फेल हो गया कि नरेंद्र मोदी की कमान में दुनिया में भारत की ताकत बढ़ी है। जब श्रीलंका जैसा छोटा पड़ोसी इस ताकत की परवाह नहीं कर रहा है तो ऐसी ताकत का या मतलब है? दूसरे, अगर कंपनी के चलते करार रद्द हुआ है तब भी सवाल है कि भारत ने ऐसी कंपनी को कैसे इतने ठेके दिए हुए हैं।

बहरहाल, श्रीलंका के बाद अब म्यांमार में भी अडानी की बदंरगाह की परियोजना भी खतरे में पड़ रही है। अडानी समूह ने म्यांमार में अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह विकसित करने का काम शुरू किया है, जिसमें उसका करार ऐसी कंपनी से है, जिसमें म्यांमार की सेना के लोग जुड़े हैं। देश में हुए तख्तापलट के बाद अमेरिका ने ऐसी कंपनियों पर पाबंदी लगाई है, जिनमें सशस्त्र बलों के लोगों की होल्डिंग है। जिस कंपनी से अडानी समूह का करार हो उस पर संयुक्त राष्ट्र संघ के जांचकर्ताओं ने नरसंहार और मानवता के खिलाफ अपराध का आरोप लगाया है। अमेरिकी पाबंदी के बाद अडानी समूह का ऐसी कंपनी के साथ जुड़ा रहना मुश्किल होगा। हालांकि विदेश मंत्री एस जयशंकर हर जगह ट्रबल शूटिंग में लगे हैं। वे श्रीलंका होकर आए हैं और उन्होंने म्यांमार के बारे में उम्मीद जताई है कि विकास की परियोजनाएं चलती रहेंगी। बाकी छोडि़ए, महिला कल्याण को ही ले लीजिए, हकीकत ये है कि ये सब सरकार के लिए नारेबाजी है। उसकी उनके असल कल्याण में रुचि नहीं है। कम से कम बजट में महिलाओं के लिए रखे जाने वाले धन का जिस तरह उपयोग हुआ है, उससे यही निष्कर्ष निकलता है। इस बारे में ध्यान अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्था ऑसफैम ने अपनी एक हालिया रिपोर्ट से खींचा है।

ऑसफैम ने कहा कि हेल्पलाइन केंद्रों की स्थापना, आपातकालीन प्रतिक्रिया सेवाओं और अधिकारियों के लिए लिंग- संवेदीकरण प्रशिक्षण के लिए निर्धारित राशि का इस्तेमाल नहीं किया गया। मसलन, निर्भया फंड को लें। सरकार ने निर्भया फंड की स्थापना 2012 में 23 वर्षीय महिला की बलात्कार के बाद हत्या के बाद की थी। ऑसफैम की रिपोर्ट में पाया गया कि फंड में पहले ही आवंटन कम है और उसका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। टुवर्ड्स वॉयलेंस फ्री लाइव्स फॉर वुमन नामक रिपोर्ट में पिछले तीन वर्षों के भारत के बजट का विश्लेषण किया गया है। इसका निष्कर्ष है कि भारत लिंग आधारित हिंसा से लडऩे के लिए सिर्फ 30 रुपये सालाना प्रति महिला खर्च कर रहा है। आठ करोड़ महिलाएं और लड़कियां, जो यौन हिंसा की शिकार होती हैं, उनके लिए बजट आवंटन करीब 102 रुपये प्रति व्यक्ति है। कोरोना वायरस महामारी ने महिलाओं की स्थिति और कमजोर बना दी है। महामारी के दौरान भारतीय महिलाओं को हिंसा का सामना करना पड़ा है।

महामारी के कारण उनकी नौकरियां चली गईं और उन्हें घर पर हिंसा झेलनी पड़ी। लेकिन 2021-22 का लैंगिक बजट पिछले साल से मामूली रूप से ही अधिक है। जहां तक निर्भया फंड की बात है, तो इस कोष का इस्तेमाल फॉरेंसिक लैब को मजबूत करने और आपातकालीन प्रतिक्रिया सेवाओं में सुधार के लिए किया जाता है। यह विशेष कर महिलाओं के लिए नहीं है और इसका लाभ व्यापक कानूनी इकाइयों को मजबूत बनाने में होता है। एक और अप्रिय यथार्थ यह है कि देश में कानून को सख्त बनाने से महिलाओं को यौन हिंसा से राहत नहीं मिली है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में 34,000 बलात्कार के मामले रिपोर्ट किए गए। करीब इतने ही मामले 2017 में दर्ज किए गए थे। इनमें से सिर्फ 27 फीसदी मामलों में ही सजा हो पाई। भारत में महिलाओं की मदद के लिए करीब 600 विशेष केंद्र ही हैं, जिनकी मदद से महिलाएं पुलिस सेवा, परामर्श और डॉक्टर की सलाह पा सकती हैं। जरूरत की तुलना में यह बेहद अपर्याप्त है। लेकिन इन सबकी आखिर चिंता किसे है?

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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