मौत से भयभीत हैं लोग, पर यह दौर भी गुजर जाएगा

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ताजा सर्वे है कि कोरोना से 55% स्वस्थ लोग भयभीत हैं, 27% लोग डिप्रेशन में हैं। हालांकि इसी सर्वे में जिक्र है कि 99% लोग ठीक हो रहे हैं। भारत के पुराने आध्यात्मिक शास्त्र, पश्चिम का आधुनिक मनोविज्ञान और चिकित्साशास्त्र भी भय को घातक मानता है। न्यूरोलॉजिस्ट और मनोवैज्ञानिक एकमत हैं कि सकारात्मकता से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। गीता में भी उल्लेख है, संशयात्मा का शुभ नहीं होता। पश्चिम में श्रेष्ठ संस्थाओं में खुशी पर पाठ्यक्रम तय हुए हैं। विलियम जेम्स ने कहा था कि आज की सबसे बड़ी खोज यह है कि इंसान अपना दृष्टिकोण बदलकर, जीवन बदल सकता है।

यह भी सही है कि जीवन है, तो मौत भी। अमेरिका, इटली, जापान और ब्राजील में सर्वे के बाद ‘द इकोनॉमिस्ट’ (2017) ने मृत्यु पर विशेष सामग्री छापी, ‘जीवन का अंत कैसे’? लोगों ने माना कि मृत्यु चर्चा से हम बचते हैं। इसके मूल में है भय। हावर्ड मेडिकल स्कूल की सुशन ब्लॉक ने कहा, मृत्यु पर चर्चा होनी चाहिए। अमेरिका में लगभग 4400 ‘डेथ कैफे’ हैं।

जहां लोग मृत्यु पर बात करते हैं। पर इन मुल्कों में भी बहुसंख्यक लोग, अंत में आध्यात्मिक शांति चाहते हैं। इस तरह पश्चिम में हाल के दशकों में मृत्यु को जानने-समझने का प्रयास शुरू हुआ है। नर्स रहीं, शैली तिस्देल का स्व-अनुभव ‘एड्वाइस फॉर डाइंग’ (2018) आई। दरअसल इन पुस्तकों में मौत मूल चिंता नहीं, बल्कि जीवन के बारे में बात है। कैसे रहें?

एक तरफ पश्चिम में मौत पर संवाद का प्रयास है। दूसरी ओर सिलिकॉन टेक कंपनियों की सबसे महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं, दीर्घजीवी होना। एआई, बायोटेक्नोलॉजी, नैनोटेक्नोलॉजी के दौर में, चिकित्सा क्षेत्र में छलांग लगाने के लिए दुनिया तैयार है।

भारतीय परंपरा में मृत्यु जीवन से जुड़ी है। कठोपनिषद में बालक नचिकेता का यम से संवाद, जीवन समझने का शास्त्र है। उपनिषदों में इस पर गहन चर्चा, युवा उम्र में होने वाले संवाद थे। यह पश्चिम और पूर्व में भिन्नता है। मान्यता है कि काशी की मणिकर्णिका, महाश्मशान है। धरती के उद्भव से। बौद्ध तिब्बत में पुरानी परंपरा है, मृत्यु के समय इंसान की मनः स्थिति बदलना।

रमण महर्षि ने तो युवा दिनों में ही मृत्यु का दरस-परस किया। रामकृष्ण मिशन के अनेक बड़े संतों ने इस पर विचार किया है। कृष्ण भक्ति आंदोलन के भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद भी इसकी गहराई में उतरे हैं। योगदा के संत परमहंस योगानंद की आत्मकथा, ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ है। उसमें ‘जीवन और मृत्यु चक्र’ पर तथ्यों के साथ कई महत्वपूर्ण प्रसंग हैं। हाल-हाल में अरुण शौरी की पुस्तक ‘प्रिपेयरिंग फॉर डेथ’ (2020) खूब चर्चित हुई।

इस तरह भारत में मृत्यु साहित्य पर चर्चा, जीवन मर्म समझने का प्रयास है। मृत्यु पर अपरिहार्यता की नजर से जीवन पर विचार है। पर भय को बरजा गया है। पुरुषार्थ और दृढ़ इच्छा शक्ति से हर मुश्किल में राह निकलती है। अंग्रेजी में भी कहावत है ‘दिस आल्सो विल पास अवे’। कोरोना का पहला दौर भी भय और सन्नाटा लेकर आया था, गुजरा। सामूहिक इच्छाशक्ति, संकल्प और खुली चर्चा से मानव कामयाब होगा। पर हम इंसानों के लिए, व्यवस्था के लिए अनेक बड़े सबक हैं, जिससे हमें सीखना होगा।

हरिवंश
(लेखक राज्यसभा के उपसभापति हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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