आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी हमेशा इस बात पर जोर देते रहे थे कि भारत को सिर्फ अंग्रेजों से आजादी नहीं दिलानी है, बल्कि उस समय मौजूद अनेक सामाजिक समस्याओं और धार्मिक-सांस्कृतिक कुरीतियों से भी मुक्ति पानी है। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर आजादी की लड़ाई के समानांतर दलित उत्थान की लड़ाई लड़ते रहे। आजादी की लड़ाई के साथ साथ किसानों का आंदोलन हुआ, जिसका स्वामी सहजानंद और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने नेतृत्व किया। अशिक्षा, बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुरीतियों के खिलाफ भी सामानांतर लड़ाई चलती रही थी। आजादी के बहुत बाद तक राजनीति इसी तरीके से चली।
पार्टियों के राजनीति से इतर बड़े सामाजिक सरोकार होते थे। पर अब ऐसा लग रहा है कि पार्टियों ने सिर्फ राजनीति को और उसमें भी वोट दिलाने की राजनीति को ही अपना सरोकार बना लिया है। बाकी चीजों पर वे चुप्पी साध लेती हैं।
एक खतरनाक प्रवृत्ति यह विकसित हुई है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल या सरकार अपने वोट की राजनीति के लिए जो काम करती हैं उनमें से ज्यादातर पर दूसरी पार्टियां चुप्पी साध लेती हैं क्योंकि उनको लगता है कि अगर वे इसका विरोध करेंगे तो उनका वोट बैंक खराब होगा या सत्तारूढ़ दल का वोट बैंक और मजबूती के साथ उससे जुड़ा रहेगा। तभी आर्थिक मसलों पर या कूटनीतिक और सुरक्षा के मसलों पर तो विपक्षी पार्टियां गाहेबगाहे सरकार पर हमला बोलती भी हैं पर ऐसे काम, जो विशुद्ध रूप से वोट बैंक की राजनीति के लिहाज से किए जाते हैं उन पर विपक्षी पार्टियां चुप्पी साधे रहती हैं।
जैसे अभी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी रोज चीन के मसले पर बोलते हैं, सरकार को कठघरे में खड़ा करते हैं। आर्थिक मसले पर बोलते हैं और सरकार को आर्थिकी में सुधार के सुझाव देते हैं। कोरोना के मसले पर भी उन्होंने सरकार को घेरा है। पर सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी, लंबे समय तक उन्हें जेल में बंद रखने, दंगों में शामिल होने के नाम पर अध्यापकों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को परेशान करने, प्रदर्शनों में शामिल लोगों से सरकारी संपत्ति के नुकसान का मुआवजा वसूलने या किसी भी किस्म के प्रतिरोध को अपराध बना देने के प्रयासों पर चुप रहते हैं। यह काम वामपंथी पार्टियों को छोड़ कर लगभग सारी पार्टियां करती हैं। वामपंथी पार्टियां भी बयान जारी करती हैं या ट्विट करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं। क्योंकि उनको भी पता है कि अब आंदोलन खड़ा करने या सड़क पर उतर कर संघर्ष करने की उनकी क्षमता खत्म हो गई है।
सोचें क्या सोनिया, राहुल या प्रियंका गांधी इस बात पर सवाल उठाया कि क्यों भीमा कोरेगांव हिंसा के नाम पर या नक्सलियों से संबंध के नाम पर सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में रखा गया है? भारत के सबसे बेहतरीन सामाजिक कार्यकर्ता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक, चिंतक जेल में बंद हैं। सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरवर राव, आनंद तेलतुम्बडे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता महीनों से जेल में हैं। सब उम्रदराज हैं, कईयों की सेहत खराब है, इसके बावजूद इनको सुरक्षा के लिए खतरा बता कर जेल में रखा गया है। आतंकवादियों के साथ गिरफ्तार किए गए जम्मू कश्मीर पुलिस के अधिकारी देवेंदर सिंह को जमानत मिल गई है पर देश के बेहतरीन सामाजिक कार्यकर्ताओं की जमानत बार बार खारिज हो रही है।
देवेंदर सिंह पर देश की सुरक्षा के साथ समझौता करने का आरोप है, उसके ऊपर आतंकवादियों की मदद करने का आरोप है पर उसे जमानत मिल गई है। क्या विपक्ष की पार्टियों को सामाजिक कार्यकर्ताओं कि रिहाई का आंदोलन नहीं करना चाहिए?
भारत में युवा दलित नेता के तौर पर उभर रहे चंद्रशेखर आजाद की गिरफ्तारी के विरोध में बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया क्योंकि वे सीधे वोट बैंक को एड्रेस करते हैं पर आनंद तेलम्बुडे की रिहाई के लिए कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ क्योंकि वे वैचारिक लड़ाई लड़ रहे हैं और उनका कोई ठोस वोट बैंक नहीं है। इन सब मसलों पर पार्टियों की चुप्पी बहुत खतरनाक है। पार्टियों की चुप्पी का नतीजा है कि दिल्ली के दंगों के मामले में गिरफ्तार किए गए एक कथित आरोपी के बयान के आधार पर सीताराम येचुरी, योगेंद्र यादव, जयति घोष, अपूर्वानंद जैसे लोगों को आरोपी बताया गया। भले बाद में पुलिस ने सफाई दी और कहा कि उसने एफआईआर नहीं की है पर यह भी कहा कि एक आरोपी ने बयान में इनका नाम लिया। असल में यह इनको और इनके जैसे सरोकार वाले लोगों को डराने के अभियान का हिस्सा है।
दिल्ली दंगों के मामले में छात्र नेता उमर खालिद को गैरकानून गतिविधि रोकथाम कानून यानी यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया। किसी पार्टी ने इस पर सवाल नहीं उठाया है। क्या सचमुच यह कानून-व्यवस्था का मसला है या प्रतिरोध को अपराध बनाने के अभियान का हिस्सा है। पार्टियों को पता है इसके पीछे वास्तविकता क्या है पर सब चुप्पी साधे रहते हैं कि कहीं इससे वोट खराब न हो जाए। लेकिन ध्यान रहे जब तक राजनीतिक पार्टियां जमीनी सरोकारों से नहीं जुड़ेंगी, आम लोगों के लिए लड़ने वालों के साथ खड़ी नहीं होंगी, संघर्ष करने के लिए जमीन पर नहीं उतरेंगी, तब तक कोई वैकल्पिक विचार नहीं खड़ा किया जा सकेगा। यह भी तय मानना चाहिए कि मौजूदा राजनीति के बरक्स अगर कोई नया वैकल्पिक विचार खड़ा नहीं हुआ है और सत्तारूढ़ दल के क्रिया पर प्रतिक्रिया देते रहने की राजनीति हुई तो वह राजनीति कहीं नहीं पहुंचेगी। उस राजनीति से अंततः सत्तारूढ़ दल को ही फायदा होगा। सो, विपक्ष की राजनीतिक पार्टियों को देश की बौद्धिक जमात पर हो रहे हमले के विरोध में आगे आना चाहिए, सामाजिक आंदोलनों से जुड़े लोगों का समर्थन करना चाहिए और उनके सरोकारों में शामिल होना चाहिए, तभी उनकी राजनीति किसी मुकाम पर पहुंचेगी।
शशांक राय
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)