यह तो साफ है कि नरेंद्र मोदी सरकार कृषि कानूनों को रद्द करने पर राजी नहीं है। दरअसल, व्यापक विचार विमर्श या लोकतांत्रिक आलोचना के आगे झुकना मोदी सरकार की कार्यशैली का हिस्सा नहीं है। ये बात पिछले साल नागरिकता संशोधन कानून के संदर्भ में भी साफ हुई थी। लेकिन तब चूंकि विवाद में एक तत्व मुसलमान का था, तो सााधारी जमात ने उस मुद्दे पर हो रही गोलबंदी को अपने लिए फायदेमंद समझा। सरकार के दुष्प्रचार, प्रशासनिक सती और कोरोना महामारी की मार के कारण वो आंदोलन समाप्त हो गया। अब काफी कुछ वही नजरिया किसान आंदोलन के सिलसिले में देखने को मिल रहा है। इस बार चूंकि बात किसानों की है और उसे मध्य वर्ग से भी बड़ा समर्थन मिल गया है, इसलिए बातचीत का दिखावा जरूर किया जा रहा है। लेकिन अब तक सरकार ने कोई ठोस ऐसी बात नहीं की है, जिसके आधार पर समझौता हो सके। एक तरीका यह हो सकता था कि सरकार कानूनों पर अमल फिलहाल सस्पेंड करने का ऐलान करती और कहती कि अब व्यापक राय-मशविरे से इन्हें नया रूप दिया जाएगा। लेकिन इसके विपरीत सााधारी पार्टी के एक नेता ने यह कह दिया है कि अगर कानून लागू नहीं हुए तो कॉरपोरेट सेक्टर नाराज हो जाएगा। इससे किसान और भड़के हैं तो उसमे हैरत क्या है? किसानों का भारत बंद भी सफल रहा।
अब आशंका है कि इस आंदोलन के चलते शहरों में फल, सब्जियों, दूध इत्यादि की आपूर्ति में कमी भी हो सकती है। बंद के बाद गृह मंत्री अमित शाह ने किसान नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया, तो आशा जगी कि शायद वे कोई संतोषजनक प्रस्ताव रखेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। तो अब भी गतिरोध जारी है। किसानों और सरकार के बीच औपचारिक बातचीत के पांच दौर हो चुके हैं। छठे दौर की बातचीत बुधवार को होनी थी, लेकिन अमित शाह की किसान नेताओं से बातचीत के बाद इसे स्थगित कर दिया गया। मगर सरकार को यह ध्यान में रखना चाहिए कि कानून बनाने और उस पर अमल की लोकतांत्रिक परिपाटी छोडऩे पर समाज टूटते हैं। किसानों को यह समझाना सरकार के लिए मुश्किल बना हुआ है कि नए कानून किसानों के हित में हैं। यह समझाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने कुछ रोज पहले में बिहार के 2006 में एपीएमसी (कृषि उत्पाद विपणन समितियां) एक्ट को खत्म करने के फैसले का जिक्र किया। कहा गया कि उससे किसानों को लाभ हुआ और अब उसी तर्ज पर देश भर में ये कानून बनाया गया है। बिहार के मुयमंत्री नीतीश कुमार ने ये भी हाल में ये कहा था कि कृषि बिल से किसानों के फसल खरीद में कोई कठिनाई नहीं होने वाली है।
लेकिन एक वेबसाइट ने आरटीआई के जरिए हासिल सरकारी दस्तावेजों के आधार पर बताया है कि बिहार के कृषि मंत्रालय ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर कहा था कि बिहार में न तो पर्याप्त गोदाम हैं, और न ही खरीदी की व्यवस्था अच्छी है।इस कारण किसानों को कम दाम पर अपनी उपज बेचनी पड़ती है। इस साल 22 मई को राज्य के कृषि सचिव एन. सरवना कुमार ने केंद्र को लिखे अपने पत्र में कहा कि राज्य में उत्पादन लागत को ध्यान में रखते हुए खरीफ की फसलों की जो एमएसपी तय की है वो बिहार सरकार के प्रस्ताव से काफी कम है। उन्होंने कहा कि बिहार प्रमुख मक्का उत्पादक राज्य है। धान यहां की प्रमुख खरीफ फसल है। लेकिन मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर, गोदाम और खरीद सुविधाएं आदि न होने के कारण किसानों को कम मूल्य पर अपने उत्पाद बेचने पड़ते हैं, जिससे उन्हें लाभ नहीं मिल पाता है। यानी बिहार सरकार ने खुद ये स्वीकार किया है कि उनके वहां खरीद व्यवस्था सही नहीं है। यह स्वीकारोक्ति बिहार के सहकारिता विभाग के उस दावे के भी विपरीत है, जो कि पिछले सितंबर में इसी वेबसाइट की एक स्टोरी के जवाब में बिहार सरकार ने कहा था। तो यह सरकारी दावे की हकीकत है। इसके बावजूद सरकार चाहती है कि किसान उसकी बातों पर भरोसा करें, तो अब शायद यह नहीं होने वाला है।