गलतियों को भूलना नहीं, सुधारना है

0
327

साल 2020 को दुनिया ईयर ऑफ डिसरप्शन (टूटना या उथल-पुथल), ईयर ऑफ डिवाइड (बांटने) और ईयर ऑफ वेकअप (जगाने) के रूप में याद रखेगी। हमारा मुल्क भी इससे अछूता नहीं रहा है। साल की शुरुआत शाहीन बाग में महिलाओं के प्रदर्शन से हुई। फिर लॉकडाउन लगा, जिसमें अप्रैल-मई की चिलचिलाती धूप में प्रवासी मजदूरों का पलायन देखा। ट्रांसपोर्ट सुविधा बंद होने की वजह से लोग पैदल ही सैकड़ों किमी दूर अपने गांवों की ओर चल दिए। इसी बीच सीमा पर चीन का संकट आया और साल के आखिर में हम कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का सबसे बड़ा प्रदर्शन देख रहे हैं।

इस साल सबसे बड़ी उथल-पुथल तो कोरोना ने पैदा की। इसने पब्लिक हेल्थ सिस्टम का एक्स-रे कर दिया। हमारे सोचने-समझने से लेकर जीवनशैली तक को बदल दिया। साथ ही, सरकारी तंत्र की ताकत को भी बढ़ा दिया। अभी तक सरकारी तंत्र बता रहा है कि कहां जाना है, कहां नहीं जाना है? साल खत्म होते-होते यूपी सरकार लव जिहाद कॉन्सेप्ट पर उतर आई है। वहां डीएम तय करेगा कि जो शादी हुई है, वह जोर जबरदस्ती से हुई है, धर्मांतरण के लिए हुई है। यानी बेहद निजी मामलों में भी सरकार का दखल बढ़ गया।

मैं मानता हूं कि लॉकडाउन जरूरी था। मैं उनमें से हूं कि मानता हूं कि लॉकडाउन करना पड़ेगा। लेकिन लॉकडाउन में बहुत अधिक ताकत चंद अधिकारियों और पुलिस को दे दी गई। उससे महसूस होने लगा कि एक जोर-जबरदस्ती हो रही है और इसकी वजह से कई लोगों को तकलीफ हुई। खासकर छोटी इंडस्ट्रीज को बहुत नुकसान हुआ। बाबू को कोई कारोबार नहीं चलाना होता और यह कहना बहुत आसान होता कि आप अपने कारोबार को इतने दिनों के लिए ठप रखिए।

लॉकडाउन के अलावा हमारे पास विकल्प नहीं था और इस दिशा में प्रयास के लिए देश और प्रदेश की सरकारों को पूरे अंक मिलने चाहिए। लेकिन जिस तरह से उसे लागू किया गया, वह सही नहीं था। अप्रैल से जून के बीच गृह मंत्रालय के एक के बाद तमाम नोटिफिकेशन आए, उससे अनिश्चतता और बढ़ती गई।

इधर, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की पूरी तरह से पोल खुल गई। हम प्राइवेट हेल्थ केयर की बात करते हैं, लेकिन निजीकरण का इस दौर में क्या फायदा हुआ? अधिकांश लोगों को इस महामारी में सरकारी अस्पतालों में ही जाना पड़ा और सरकारी तंत्र पर बहुत ज्यादा दबाव पड़ा। मुंबई जैसे शहरों में तो तंत्र बिखर भी गया।

इसी तरह डिजिटल डिवाइड का गैप बढ़ गया। किसी पास पढ़ाई के लिए उपकरण हैं, नेट है और किसी के पास ये सुविधाएं नहीं हैं। हमारे समाज की गैर-बराबरी को इस काल ने बहुत सफाई और ताकत से उजागर कर दिया। मध्यम वर्गीय तो शायद लॉकडाउन झेल पाया, क्योंकि उसके पास अपेक्षाकृत ज्यादा जगह थी। लेकिन, मजदूर जो हमारे घर बनाते हैं, कारखानों में मेहनत करते हैं, वो एक-एक कमरे में 10-10 की संख्या में रहते हैं। उनकी जिंदगी में तो आफत ही आ गई।

कोरोना के दौरान पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा, लेकिन हमारी समस्या यह रही कि हमारे यहां तो कोरोना के पहले ही अर्थव्यवस्था काफी पीछे चली गई थी। नोटबंदी के बाद से ही हमारी अर्थव्यवस्था काफी मंदी में चल रही थी। भारत जैसे देश में यदि ग्रोथ 5 से 6%नहीं रहेगी, तो करोड़ों नौकरियां चली जाएंगी और ये जो हमारे डेमोग्राफिक डिविडेंड हैं, वो डेमोग्राफिक डिजास्टर बन जाएंगे।

जब हम इस साल की सभी घटनाओं को बड़े कैनवास पर देखें कि कोरोना, इकोनॉमी में गिरावट हो, चीन का मामला हो तो लगता है कि यह सरकार दबाव में है। सरकार पर विपक्ष हावी होगा। लेकिन असल तस्वीर यह है कि मोदी जी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। विपक्ष एक तरह से नाकाम रहा। नतीजा बिहार के चुनाव परिणाम रहे। जहां पलायन के बाद सबसे अधिक मजदूर लौटे, लेकिन नवंबर में वही सरकार दोबारा जीती। आज विपक्ष वाली असली ऊर्जा आम लोगों में दिख रही है, जिसका उदाहरण किसानों का प्रदर्शन है।

हमारी सेना के लिए भी वेक अप कॉल है कि क्या हमने चीन को अंडर एस्टिमेट किया? क्या हमसे इंटेलिजेंस या मिलिट्री फेल्योर हुआ? हम न्यू इंडिया की बात करते हैं, पर पब्लिक हेल्थ सिस्टम पर निवेश को डबल नहीं करते। हमारी मीडिया पर सवाल है कि किसानों के प्रदर्शन में मीडिया के खिलाफ नारेबाजी होती है। संसद से लोगों को भरोसा उठ रहा है, संसद में कानून पारित होता है, लेकिन लोग सड़कों पर आ जाते हैं।
लोग चाहेंगे कि इस साल को भूल जाना चाहिए, लेकिन हमें इस साल को भूलना नहीं है, इस साल हमसे जो गलतियां हुई हैं उनको हमें सुधारना है क्योंकि वे हमारे लोकतंत्र से जुड़ी गलतियां हैं।

राजदीप सरदेसाई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here