सेवा ही एक ऐसा माध्यम है, जो सभी को जोड़ती है। हमारा सेवा भाव, हमारी एकता और पवित्रता की शक्ति ही इस धरती पर सतयुगी सृष्टि का निर्माण करेगी। एक चीज जो हम सबने बीते पांच-छह महीनों में अनुभव की है कि हम अपने घर के वे सारे काम कर रहे हैं, जिनके लिए हमारे पास सहयोगी हुआ करते थे। अगर कभी कोई छुट्टी ले लेता या देर से आता था तो हम कितने नाराज हो जाते! अभी देखो, हम सब काम कर रहे हैं।
अब जब कुछ दिनों बाद सब नॉर्मल हो जाएगा। तो हमें अपना नॉर्मल बदलना है। अगर किसी दिन कोई नहीं आया या कोई लेट आया तो हम उनसे प्यार से बात करेंगे क्योंकि वो हमारे कार्य में सहयोग दे रहे हैं। हम उनसे प्यार से बात करके, उनको तनख्वाह के साथ दुआएं देकर, उनसे सम्मानभरा व्यवहार करेंगे। उनके बारे में सोचेंगे, तो उनका भी व्यवहार बदल जाएगा।
हम वही लोग हैं जो अगर कोई छुट्टी लेता था तो उसकी तनख्वाह काट दिया करते थे। आज हम उनको कह रहे हैं- आप घर पर रहो, ध्यान रखो, आपको सैलरी मिल जाएगी। आज इसको समाज कह रहा है, न्यू नॉर्मल। सच में कहा जाए तो यही नॉर्मल है। ये स्वभाव, संस्कार, बात करने का तरीका, दूसरों का ध्यान रखने का तरीका, अपने से पहले दूसरों के बारे में सोचने का तरीका, यह नॉर्मल है और इसे आध्यात्मिक शक्ति कहा जाता है।
अब हमें इसमें सिर्फ एक छोटी सी चीज जोड़नी है कि हम सब घर-बाहर का सारा काम कर रहे हैं, औरों के लिए भी कर रहे हैं। हमें सिर्फ उस पर फोकस नहीं करना है, बल्कि हम किस मन:स्थिति से कर रहे हैं, उस पर ध्यान देना है। हमारी मन की स्थिति ठीक होगी तभी हमारे अंदर आध्यात्मिक शक्ति बढ़ेगी। यदि हम दु:खी, मजबूर होकर कर रहे हैं कि क्या मुसीबत आ गई सिर पर, ये वायरस कब खत्म होगा, मतलब ये भगवान का कहर है…ये तो हमको सजा मिल रही है।
अगर हम इस तरह की सोच के साथ कार्य करेंगे तो वो सेवा नहीं होगी और हमारी आत्मिक शक्ति भी नहीं बढ़ेगी। आत्मिक शक्ति बढ़ाने के लिए हमारी हर सोच, हमारे भाव और भावना सही होनी चाहिए। परमात्मा के महावाक्य हैं, सेवा कितनी भी करते हो लेकिन जमा का खाता हुआ या नहीं हुआ उसकी निशानी है तीन शब्द- ‘निमित्त भाव, निर्माण भाव और निर्मल वाणी।’ ये तीन शब्द चाहिए आत्मिक शक्ति को बढ़ने के लिए। परमात्मा कहते हैं तीनों में से एक भी कम होगा तो सेवा भले कितनी भी करो लेकिन जमा का खाता नहीं होगा, मतलब आत्मा की शक्ति नहीं बढ़ेगी। फिर परमात्मा कहते हैं, सेवा में अहंकार आया तो उससे भी जमा नहीं होता है।
यदि मैं किसी कार्य को करने का निमित्त बनता हूं तो निर्माण भाव स्वत: आ जाता है। जब निर्माण भाव आएगा तो निर्मल वाणी आएगी। जिससे हमारे शब्द बहुत ही मधुर होंगे। ईश्वरीय महावाक्य हैं ये, कितनी भी मेहनत करो, रात-दिन भागदौड़ करो, दिमाग चलाओ, लेकिन निमित्त भाव, निर्माण भाव, निर्मल वाणी नहीं हैं तो जमा नहीं होगा। मतलब आपने बहुत मेहनत की, उसका तो बल मिलेगा, लेकिन अगर चिड़चिड़ा रहे हैं, किसी पर स्नैप कर रहे हैं, गुस्सा भी कर रहे हैं, तो आत्मा की पांच प्रतिशत ही शक्ति बढ़ेगी। अगर निमित्त भाव होगा, ह्यूमिलिटी होगी, निर्मल वाणी होगी तो फिर पूरा जमा होगा।
क्योंकि हमारे हर कर्म से आत्मिक शक्ति बढ़ती है। ये बहुत महत्वपूर्ण है। हम सेवा कर रहे हैं, कुछ महीने नहीं जीवनभर सेवा करेंगे। निमित्त भाव, निर्माण भाव और निर्मल वाणी से किया गया हर वो कार्य सेवा होता है जो हम करते हैं।
एक होता है कल्याण की भावना से सेवा करना और दूसरा होता है स्वार्थ से सेवा। मतलब स्व के अर्थ मतलब मेरे प्रति कुछ होना चाहिए। अब एनर्जी एक ही दिशा में फ्लो हो सकती है या तो देने की एनर्जी या तो मुझे कुछ चाहिए उसकी एनर्जी। इसमें लेने की एनर्जी आ गई। तो ये स्व अर्थ हो गया। इसलिए उसको स्वार्थ कहते हैं। सेवा नि:स्वार्थ होनी चाहिए मतलब जिसमें स्व अर्थ कुछ नहीं है। तब उस सेवा की एनर्जी, उस सेवा की शक्ति, सिर्फ देने की ही दिशा में फ्लो करेगी। तब हमारी आत्मा की शक्ति बढ़ेगी और पुण्य का खाता जमा होगा।
बीके शिवानी
(लेखिका ब्रह्मकुमारी हैं समाज हित में ये उनके खास विचार हैं)