जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि पर सोशल मीडिया में अनेक हिन्दूवादियों ने जमकर नेहरू-निंदा की। नेहरू के हानिकर कामों से लेकर उन के निजी अवगुणों तक की खबर ली। निस्संदेह, तथ्यों की दृष्टि से अधिकांश आलोचनाएं सही है। मगर दो चीज अखरने वाली है, जो देश के लिए स्वास्थकर नहीं है। एक तो मरे हुए को मारने में वीरता दिखाना! यह सिंह नहीं, सियार वाला व्यवहार है। अनेक हिन्दू राष्ट्रवादी लंबे समय से नेहरू के बारे में कठोर, जुगुप्सात्मक बातें कहते रहे हैं। किन्तु अनौपचारिक रूप से। सत्ता में आने के बाद ही उन्होंने संसद में नेहरू की खुलकर खिंचाई की। किन्तु नेहरू शासन से लेकर इंदिरा, राजीव काल तक उन के द्वारा नेहरू की आलोचना का रिकॉर्ड शायद ही मिंले। उलटे, 1961 ई. में साप्ताहिक ‘ऑर्गेनाइजर’ में सीताराम गोयल की प्रसिद्ध लेख-श्रृंखला ‘‘इन डिफेंस ऑफ कॉमरेड मेनन’’ को सर्वोच्च हिन्दू राष्ट्रवादी अटल बिहारी वाजपेई ने रुकवाया। वे लेख नेहरू की गलत नीतियों का ही लेखा-जोखा थे। पर उस के लिए वाजपेई ने गोयल को अपमानित भी किया।
लेकिन अब जब नेहरू नहीं हैं, और उन की पार्टी भी सत्ता से दूर, अत्यंत दुर्बल अवस्था में है, तब उन्हें फींचा जा रहा है। इस के विपरीत, देश के लिए अभी हानिकर काम कर रहे नेताओं, संस्थाओं, संगठनों पर चुप्पी रहती है। बल्कि उन का वैसे ही बचाव होता है, जैसे पहले नेहरू का किया जाता था। उदाहरण के लिए, तबलीगी जमात या देवबंदियों पर हिन्दू राष्ट्रवादियों की नीतियाँ देखें। इस प्रकार, न केवल पहले नेहरू की आलोचना नहीं होती थी, बल्कि आलोचना को रोका भी जाता था। सन् 1950 से 1980 के दशक तक, लगभग चालीस वर्षों में हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा नेहरू की निंदा करते भाषण, प्रस्ताव, दस्तावेज, आदि ढूँढें। जबकि नेहरू कोई जोसेफ स्तालिन या सद्दाम हुसैन जैसे खूनी तानाशाह नहीं थे, जो किसी को खा जाते। सीताराम गोयल, जे.पी., लोहिया, महावीर त्यागी, आदि विद्वानों, नेताओं ने नेहरू के सामने उन की कड़ी आलोचना की। तब हिन्दू राष्ट्रवादी वीर कहाँ थे? अतः देश-हित की दृष्टि से अखरने वाली चीज है: जीवित शत्रु से बचना और मृत शत्रु को पीटना। यह स्वस्थ, समर्थ, आत्मविश्वासपूर्ण, या बुद्धिमान होने की भी पहचान नहीं है।
दूसरे, जहाँ नेहरू की निंदा की जाती है, वहीं नेहरू की तमाम नीतियों को सोत्साह अपना लिया गया है! पिछले तीन दशकों में विभिन्न राज्यों की सरकारों से लेकर केंद्र तक, भाजपा सत्ताधारियों का एक भी काम ऐसा नहीं, जो नेहरूवादी वैचारिकता से भिन्न हो। यह कोई अनजाने नहीं, बल्कि सोचे-समझे रूप में हो रहा है। इस का सब से भद्दा रूप अपने पार्टी-नेताओं की पूजा और उन के नाम से चौतरफा सड़कों, भवनों, योजनाओं, संस्थाओं, आदि का नामकरण है। यह हिन्दू नहीं, कम्युनिस्ट परंपरा है। भाजपा द्वारा नेहरूवादी मार्ग पर चलने का सबसे बड़ा प्रमाण उन का सिरमौर अटल बिहारी वाजपेई बने रहना है। वाजपेई खुले नेहरूभक्त थे। उन्होंने नेहरू को यहाँ लोकतंत्र का संस्थापक, मार्गदर्शक, महान आदर्शवादी, यहाँ तक कि भगवान राम के गुणों से भी युक्त बताया था! नेहरू के पक्के शागिर्द जैसे ही वाजपेई ने भी मुस्लिम नेताओं और कम्युनिस्टों को विशेष मदद दी। जैसे, सैयद शहाबुद्दीन, मौलाना वहीउद्दीन, इंद्र कुमार गुजराल, अमर्त्य सेन, आदि को ऊँचे पद-सम्मान दिए। वाजपेई ने ही भाजपा का उद्देश्य ‘गाँधीवादी समाजवाद’ रखा।
याद रहे, समाजवाद की जवानी में भी किसी हिन्दू मनीषी ने उसे ठीक नहीं माना था। पर भाजपा ने उसे 1980 ई. में अपना लक्ष्य बनाया, जब समाजवाद अंतिम साँसें गिन रहा था। यह नेहरूवाद की ही मतिहीन नकल थी। फिर, वाजपेई ने अयोध्या आंदोलन से भी दूरी रखी। वे हिन्दू मंदिरों की पुनर्वापसी का आंदोलन चलाने के विरुद्ध थे। नेहरूवाद ही भाजपा की नीति है, इसे उस के अनेक सत्ताधारियों के कार्यों, बयानों में देखा जा सकता है। अल्पसंख्यकों के प्रति विशेष मोह; हिन्दुओं को गरीबों-अमीरों, अगड़ों-पिछड़ों में बाँट कर देखना; राज्य-तंत्र को समाज के हर अंग में घुसा कर समाज को राज्य-निर्भर बनाना; गरीबों की मदद के नाम पर अनुत्पादक योजनाओं में बेतहाशा बर्बादी; शैक्षिक-सांस्कृतिक नीतियों को विजातीय, अंग्रेजी-परस्त, हिन्दू-द्वेषी बनाए रखना; हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा; पर मस्जिदों-चर्चों को पूरी स्वतंत्रता; तथा सत्ता पर अपना व अपनी पार्टी का एकाधिकार रखने की प्रवृत्ति; आदि वामपंथी नीतियाँ ही है। इन्हें लाचारी में नहीं, बल्कि सहज स्वीकार किया गया है।
प्रमाण यह है कि हिन्दू राष्ट्रवादियों के नीति-विमर्श, प्रकाशन, गोष्ठी, सेमिनार, आदि में कभी इन विषयों पर कोई विश्लेषण नहीं मिलता। नीतियों के मामले में वे पचास सालों से वाजपेई पर निर्भर, इसलिए नेहरूवादी नशे में रहे हैं। अतः उन नीतियों को बदलने की उन में चेतना ही नहीं है। उन के आम वैचारिक रुख में भी नेहरूवाद झलकता है। जैसे, हर समस्या में आर्थिक कारण प्रमुख मानना। तदनुरूप गरीबों की चिंता लहराते रहना। यह वर्ग-विभेदी दृष्टि मार्क्सवाद की बुनियाद है। हिन्दू चिंतन में यह वर्गीय दृष्टि नहीं है। फिर, बात-बात में अमेरिका, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, और कॉरपोरेट घरानों पर सपाट दोषारोपण भी कम्युनिस्टों जैसा है। तथ्य, प्रमाण या अध्ययन की परवाह किए बिना बने-बनाए शत्रुओं को सदैव निशाना बनाना। ताकि पार्टी कार्यकर्ता हर बात पर कुछ न कुछ बोलने को तैयार रहें। अच्छे-बुरे काम देखने-परखने के बजाए अपने नेता, पार्टी और देश के शत्रुओं की हवाई निंदा में लगे रहें। सच्ची आलोचना के पीछे भी आर्थिक नीयत ही समझी जाती है। कि आलोचक बिका हुआ है या बिकना चाहता है।
मानो इस के सिवा आलोचना का कोई कारण नहीं हो सकता! यह साफ कम्युनिस्ट मानसिकता है, जो हिन्दू राष्ट्रवादियों में भी भर गई है। दूसरी ओर, वास्तविक शत्रुओं के प्रति नरमी बल्कि मैत्री भाव रखना भी नेहरूवादी अवगुण है। स्तालिन से लेकर माओ, या अंदरूनी कम्युनिस्टों द्वारा भारत और स्वयं नेहरू पर अपमानजनक वक्तव्यों, घृणित विशेषणों को सुनकर भी नेहरू सदैव रूस, चीन, और कम्युनिस्टों की प्रशंसा करते रहते थे। तरह-तरह से उन की खूबियाँ बयान करते थे। इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए भी नेहरू सहज, मधुर बातें कहते थे, किन्तु हिन्दू महासभा और आर.एस.एस. को दुर्वचन सुनाते थे। अपनी पार्टी में भी किसी सहयोगी द्वारा आलोचना के प्रति नेहरू सहिष्णु नहीं थे। यह विशेषता भी वाजपेई समेत कई भाजपाई नेताओं में देखी गई है। आखिर, गोविन्दाचार्य या अरुण शौरी का अपराध क्या था? इसलिए, नेहरू निंदा करते हुए नेहरूवादी नीतियों पर थोक भाव चलते रहना विचित्र बात है। हिन्दुओं के लिए यह दोहरे कष्ट का विषय है।
किसी भी समीक्षा पर उन्हें भी जली-कटी सुनाई जाती है। फिर किसी हिन्दू द्वारा आलोचना पर उन का टका सा जबाव है: ‘आप के पास विकल्प क्या है?’ एक तो, यह जबाव आलोचनाओं को सही ठहराता है। दूसरे, इस में भी नेहरूवादी प्रभाव है। नेहरू के समय से ही ‘आफ्टर नेहरू, हू?’ को इसी अंदाज में रखा जाता था। मानो भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में शान्ति का दारोमदार बस नेहरूजी पर टिका है! कम से कम दिल्ली राज्य के अनुभव से हिन्दू ऱाष्ट्रवादियों को सीखना चाहिए। पार्टियों का विकल्प बनते देर नहीं लगती। जहाँ तक हिन्दू धर्म-समाज की बात है, तो उस का भवितव्य किसी पार्टी पर निर्भर नहीं। हजारों वर्षों से इस महान सभ्यता की जीवन-शक्ति कहीं और है। उस जीवन-शक्ति से जुड़े रहने के बजाए केवल पार्टी-प्रचार, नेताओं की भक्ति, और कांग्रेसी तिकड़मों में महारथ हासिल करने में ही मशगूल रहने से हिन्दूवादी संगठनों को सूखते देर नहीं लगेगी। उन्हें अपने सगंठन को ही सत्य समझने के बजाए, सत्य का संगठन करना चाहिए।
शंकर शरण
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)