आज नरसिंहरावजी का 99 वां जन्मदिन है। मैं यह मानता हूं कि अब तक भारत के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें चार बेजोड़ प्रधानमंत्रियों का नाम भारत के इतिहास में काफी लंबे समय तक याद रखा जाएगा। इन चारों प्रधानमंत्रियों को अपना पूरा कार्यकाल और उससे भी ज्यादा मिला। ये हैं, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, नरसिंहराव और अटलबिहारी वाजपेयी। भारत के पहले और वर्तमान प्रधानमंत्री के अलावा सभी प्रधानमंत्रियों से मेरा कमोबेश घनिष्ट परिचय रहा और वैचारिक मतभेदों के बावजूद सबके साथ काम करने का अनुभव भी मिला। अटलजी तो पारिवारिक मित्र थे लेकिन नरसिंहरावजी से मेरा परिचय 1966 में दिल्ली की एक सभा में भाषण देते हुआ था। उस सभा में राष्ट्रभाषा उत्सव मनाया जा रहा था। मैंने और उन्होंने कहा कि हिंदी के साथ-साथ समस्त भारतीय भाषाओं का उचित सम्मान होना चाहिए। यह बात सिर्फ हम दोनों ने कही थी। दोनों का परस्पर परिचय हुआ और जब राव साहब दिल्ली आकर शाहजहां रोड के सांसद-फ्लेट में रहने लगे तो अक्सर हमारी मुलाकातें होने लगीं।
हैदराबाद के कुछ पुराने आर्यसमाजी और कांग्रेसी नेता उनके और मेरे साझे दोस्त निकल आए। जब इंदिराजी ने उनको विदेश मंत्रालय सौंपा तो हमारा संपर्क लगभग रोजमर्रा का हो गया। मैंने जवाहरलाल नेहरु युनिवर्सिटी से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ही पीएच.डी. किया था। पड़ौसी देशों के कई शीर्ष नेताओं से मेरा संपर्क मेरे छात्र-काल में ही हो गया था। अंतरराष्ट्रीय मसलों पर इंदिराजी, राजा दिनेशसिंह और सरदार स्वर्णसिंह (विदेश मंत्री) से मेरा पहले से नियमित संपर्क बना हुआ था। उनकी पहल पर मैं कई बार पड़ौसी देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से मिलने जाया करता था। नरसिंहरावजी के जमाने में यही काम मुझे बड़े पैमाने पर करना पड़ता था। जिस रात राजीव गांधी की हत्या हुई, पीटीआई (भाषा) से वह खबर सबसे पहले हमने जारी की और सोनियाजी और प्रियंका को मैंने खुद 10-जनपथ जाकर यह खबर घुमा-फिराकर बताई। मैं उन दिनों ‘पीटीआई-भाषा’ का संपादक था।
उस रात राव साहब नागपुर में थे। उनको भी मैंने खबर दी। दूसरे दिन सुबह हम दोनों दिल्ली में उनके घर पर मिले और मैंने उनसे कहा कि अब चुनाव में कांग्रेस की विजय होगी और आप प्रधानमंत्री बनेंगे। राव साहब को रामटेक से सांसद का टिकिट नहीं मिला था। वे राजनीति छोड़कर अब आंध्र लौटनेवाले थे लेकिन भाग्य ने पलटा खाया और वे प्रधानमंत्री बन गए। हर साल 28 जून की रात (उनका जन्मदिन) को अक्सर हम लोग भोजन साथ-साथ करते थे। 1991 की 28 जून को मैं सुबह-सुबह उनके यहां पहुंच गया, क्योंकि रामानंदजी सागर का बड़ा आग्रह था। राव साहब सीधे हम लोगों के पास आए और बोले ‘‘अरे, आप इस वक्त यहां ? इस वक्त तो ये बेंड-बाजे और हार-फूलवाले प्रधानमंत्री के लिए आए हुए हैं।’’ राव साहब पर प्रधानमंत्री पद कभी सवार नहीं हुआ। उन्होंने भारत की राजनीति विदेश नीति और अर्थनीति को नयी दिशा दी। पता नहीं, उनकी जन्म-शताब्दि कौन मनाएगा और वह कैसे मनेगी ?
डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)