मुंबई धरती की सबसे खतरनाक जगह

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ये हफ्ता बहुत व्यस्तताओं भरा रहा, तो शामें टीवी पर कोविड मरीजों की डरावनी संख्या देखते हुए गुजरीं। आंकड़े हर दिन बढ़ रहे हैं और हम दुनिया में सबसे ज्यादा प्रभावित देशों से कहीं आगे बढ़ गए हैं। मेरा शहर मुंबई इन दिनों धरती की सबसे खतरनाक जगह है।

इस बात ने और ज्यादा डरा दिया है कि जिन लोगों को मैं जानता हूं, मेरे चारों ओर के लोग, मेरे साथ काम करने वाले या काम कर चुके लोग, अभी बीमार हैं और मर रहे हैं। और एक डरावना अहसास है कि पीछे छूट गए लोगों के प्रति संवेदनाएं प्रकट करने के अलावा मैं कुछ भी नहीं कर सकता। खुद को इतना असहाय मैंने कभी नहीं पाया। कई बार आपके इर्द-गिर्द चीजें इतनी तेजी से बदलती हैं कि आप हैरत में पड़ जाते हैं। मुझे लगता है कि वह पिछला जनवरी का समय था, जब एयरपोर्ट पर मैंने पहले कुछ लोगों को मास्क पहने हुए देखा था।

महीने के बारे शायद मैं गलत हो सकता हूं। निश्चितता तो अब बिसरी बात हो गई है। अब तो हम भयानक अनिश्चितताओं के बीच जी रहे हैं। पर अब तक आप जान गए होंगे समय के साथ हम इसके आदी हो जाते हैं। अब दूसरों की तरह मैं भी थोड़ी-सी देर के लिए भी बाहर निकलते समय मास्क पहनता हूं और उस दिन के बारे में सोचकर डर रहा हूं जब मुझे घर पर भी मास्क पहनना पड़ेगा। सांसों की महत्ता इससे पहले मैंने कभी महसूस नहीं की। इस साल मैंने कसरत कम की और बहुत ज्यादा खाया। जबकि सबने मुझे इम्यूनिटी को लेकर चेताया।

मेरा डॉक्टर मित्र शौकत महामारी से पहले गुजर गया। सालों वह मेरे परिवार का इलाज करता रहा। उसके जाने के बाद उसकी क्लीनिक जाने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई। गुजरना तो जैसे इस शहर का नया खेल-सा बन गया है। और मैं अपने मित्र इतनी तेजी से खो रहा हूं, जितनी तेजी से मैंने पैसे नहीं गंवाए।

अचानक ही फार्मा कंपनियां तेजी से फलफूल रही हैं। मालूम है कि लोगों का उपचार पुण्य का काम था। अभी भी है। पर मैंने कभी नहीं सोचा था कि ये इतना फायदे का बिजनेस हो सकता है। शायद इस पर चर्चा का ये सही समय नहीं और इस पर भी कि फार्मा कंपनियां भारी मुनाफा कमा रही हैं, पर मेरे बैंक ने बताया है कि लड़खड़ा रही फार्मा कंपनियों ने भी न सिर्फ कर्ज चुका दिया है बल्कि एफडी तक करवा रही हैं। चलो कम से कम कुछ लोग तो खुश हैं!

इस मुश्किल समय में भी कुछ लोग समृद्ध हो रहे हैं। जब मैं पहली बार इस शहर में आया, तब यह बॉम्बे था, मुंबई नहीं, तब अनिल मेरे शुरुआती मित्रों में से एक था। शहर के लज़ीज़ स्ट्रीट फूड से मेरा पहला परिचय उसी ने कराया। शाम को जैसे ही मरीन ड्राइव पर सूरज अस्त होता कई बार हम उस शहर के अधिकांश अनजाने हिस्सों का स्ट्रीट फूड चखने निकल पड़ते।

कई दूसरे लोगों की तरह अनिल मेरी जिंदगी से ओझल हो गया। जिंदगी भीड़भाड़ वाले उस रेल्वे स्टेशन की तरह है, जहां लोग आ रहे हैं जा रहे हैं। शौकत, कमल, जिसके साथ मैं हर दोपहर को बिना शक्कर की चाय पीता था और जिसका दफ्तर मेरे दफ्तर के ऊपर ही था, उद्यन और नॉबी, मेरा पुराना स्कूल मित्र और एयरफोर्स से रिटायर्ड पायलट जॉर्ज और अब धारकर…वे सब आगे निकल गए हैं। अनिल काफी छोटा है।

शानदार वापसी का उसके पास मौका है। जैसा यह शहर करेगा, अभी नहीं तो बाद में। जैसे हमारे शो और फिल्में करेंगी। जैसे कि आप करेंगे और उम्मीद है कि हम सब करेंगे। पर आज हवा में बहुत सारा दुख है, डर है कि इसमें वक्त लग सकता है। जहां कभी हम थे, वहां लौटने में, हालातों से उबरने में वक्त लग सकता है। एक महान राष्ट्र लड़खड़ाते हुए अपने भाग्य की तलाश कर रहा है। कभी सही। तो कभी बुरी तरह से गलत।

इस बीच बाहर चुनावी पिच पर उत्साह चरम पर है। मैं शोर सुन रहा हूं। धक्का-मुक्की करते, तो कभी लड़ते हुए बिना मास्क लगाए भारी भीड़ को टीवी पर देखता हूं। अजीब सी परिस्थिति है, मौत का तमाशा चल रहा है। मैं उम्मीद करता हूं कि इस सबके आखिर में लोग समझेंगे और सबकुछ सामान्य हो जाएगा। आज भारत को पहले से अधिक शांति और लोगों की सेहत बेहतर बनाने की जरूरत है। मुझे उम्मीद है कि जो लोग ये चुनाव जीतें (साथ ही हारने वाले भी) वे इसे हासिल करने में हमारी मदद करेंगे। या कम से कम कोशिश करेंगे।

प्रीतीश नंदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म निर्माता हैं ये उनके निजी विचार हैं

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