वर्ष 1992 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव अभियान में बिल लिंटन ने इस मुहावरे को अमर बना दिया था’यह अर्थव्यवस्था का मामला है मूर्खो!’ या नरेंद्र मोदी के भारत के लिए भी यह प्रासंगिक है? दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों के हर चुनावों में इसे दोहराया जाता है। लिंटन के लिए मशहूर राजनीतिक सलाहकार जेम्स कारविले ने इसकी रचना की थी। उन्हें वैश्विक स्तर का अमेरिकी प्रशांत किशोर माना जा सकता है। करीब चौथाई सदी से यही हो रहा है कि जिस नेता ने बेहतर अर्थव्यवस्था देने का वादा किया, वह दोबारा सत्ता में आया। 2016 में इस वादे ने ट्रम्प को सत्ता दिलाई, तो 2014 में मोदी को। मोदी के शुरू के दो साल बाद से अर्थव्यवस्था या तो थम गई या गिरने लगी। गतिरोध 2016-17 में नोटबंदी के साथ आया। पिछली 8 में से 7 लगातार तिमाहियों में आर्थिक वृद्धि में गिरावट दर्ज की गई। गिरावट के लिए महामारी को जिम्मेदार बताया जा रहा है, तो यह गलत नहीं है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वायरस से पहले सब ठीक था। हम जानते हैं कि 2014 में मोदी ‘गुजरात मॉडल’ के तहत भारी आर्थिक वृद्धि, रोजगार और विकास के वादे के बूते साा में आए थे। लेकिन शुरू के 24 महीनों में कुछ हद तक यह वादा पूरा करने के सिवा वे फिर कभी इस वादे के मुताबिक कुछ नहीं कर पाए। ‘यह अर्थव्यवस्था का मामला है मूर्खो!’ वाली बात सच होती तो 2017 में वे उत्तर प्रदेश में बहुमत से न जीतते। उस समय तक नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था की हवा निकाल दी थी। 2019 की गर्मियों तक अर्थव्यवस्था पहले ही तूफान में घिर चुकी थी।
कुछ आंकड़े ऐसे थे कि सरकार को या तो उन्हें छिपाना पड़ा या बदलना पड़ा या फॉर्मूले बदलकर अनुकूल बनाना पड़ा, जैसे कि जीडीपी के आंकड़े। फिर भी मोदी उस चुनाव में और ज्यादा बहुमत से जीत कर साा में आए। ठीक एक महीने बाद पता चलेगा कि मतदाताओं ने 5 विधानसभाओं के चुनाव में या फैसला सुनाया है। सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था नहीं, तो मोदी के लिए या कारगर साबित होता रहा है? ऐसा सिर्फ भारत में नहीं हो रहा है। ट्रंप के साथ जो भी खराबी रही हो, अमेरिकी अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में थी तब भी वे हार गए। अधिकतर मतदाताओं के दिमाग में दूसरे मुद्दे रंगभेद, वर्गभेद आदि छाए रहे। उधर दूसरे छोर पर, पुतिन का जलवा है। इस बार इस स्तम्भ के लिए मैंने ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ में रुचिर शर्मा के लेख से मसाला जुटाया, जिसमें उन्होंने लिखा है कि पुतिन ने रूस को आर्थिक प्रतिबंधों से किस तरह बेअसर बनाया है और नगण्य आर्थिक वृद्धि के बावजूद वे किस तरह चुनाव जीतते रहे हैं। पुतिन को लोगों के मन में जमे उस गहरे असुरक्षा बोध का फायदा मिलता रहा है जो उनके उत्कर्ष से पहले राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता से पैदा हुआ था। उनके लिए स्थिरता पहली प्राथमिकता है, अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए इंतजार किया जा सकता है।
अगर हम इसे आधार बनाएं, तो स्थिरता राष्ट्रवादी स्वाभिमान लाती है। इससे या फर्क पड़ता है कि उसकी अर्थव्यवस्था उभरते बाजारों से भी सिकुड़ गई है? तुलना के लिए कहा जा सकता है कि उसकी अर्थव्यवस्था 1.7 ट्रिलियन डॉलर वाली (2019 में) भारतीय अर्थव्यवस्था के महज 60 फीसद के बराबर है। लेकिन देश अगर एकजुट हो तो वह अपने पड़ोसियों और वैश्विक साा संतुलन पर अपनी आर्थिक ताकत से ज्यादा दबाव डाल सकता है। यह बात भारत के लिए भी लागू करके देखिए। 2014 तक भी 26/11 के आतंकवादी हमले के जख्म हरे ही थे, जिनका सिलसिला वाजपेयी सरकार के शुरू के दिनों तक जाता है। यह कमजोर पड़ोसी से दो दशक तक अपमान झेलने जैसा था। वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक, भारत सिर्फ अमेरिका से लेकर तमाम देशों के पास शिकायत करता रहा। मोदी के मामले में, अगर गुजरात मॉडल को देश भर में लागू करने के वादे ने कमाल किया, तो फैली नकारात्मकता ने अनुकूल हवा का काम किया।
पिछले 7 साल में मोदी अपना पहला वादा निभाने में लगभग विफल रहे हैं, लेकिन दूसरे वादे, राष्ट्रीय गौरव बहाल करने, सीमा पार से आतंकवाद का करारा जवाब देने, और प्रधानमंत्री पद की शान बढ़ाने के मामलों में 10 में से 10 अंक हासिल कर लिए, यहां बता दें कि हम केवल उनके समर्थकों की बात कर रहे हैं। हाल में आर्थिक सुधारों को जिस तरह ताबड़तोड़ लागू करने के कदम उठाए गए हैं वे यही बताते हैं कि मोदी को समझ में आ गया है कि अब उन्हें नई पटकथा की जरूरत है। मोदी को सब समझ में आ गया है, लेकिन उन्हें चुनौती देने वालों को या यह समझ में आया है? अब भी वे मोदी की आर्थिक पैमानों पर खिंचाई कर रहे हैं। पहचान और राष्ट्रीय गौरव जैसे दो बड़े मुद्दे उन्होंने मोदी के हवाले ही कर दिए हैं। आर्थिक कष्ट असुरक्षा का भाव पैदा करते हैं, लेकिन राष्ट्रीय गौरव या पहचान पर खतरे की आशंका से पैदा होने वाली भावना के मुकाबले यह कुछ भी नहीं है। यही वजह है कि लोकतांत्रिक विश्व में, भावनाएं उभारने वाले नेता जीतते रहते हैं। यही वजह है कि आज हम यह कह रहे हैं कि ‘बुद्धिमानों, मामला अर्थव्यवस्था का नहीं है।
शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)