जश्न की बहुतेरी तस्वीरें हम सबने देख रखी हैं। जीत या किसी खास मौके पर आसमानों को ढंकता गुलाल, बच्चों के गालों से कुप्पा गुब्बारे, शोर, खिलखिलाहट, हवा की महक में घुलती मिठास। एक और तस्वीर दिखती है, जिसमें विजेता कंधों पर बैठा हुआ हवा में हाथ लहराता होता है। ये विजेता हमेशा मर्द होता है और उसे उठाने वाले कंधे भी मर्दाना। लेकिन ताजा तस्वीर एकदम अलग है। इसमें एक औरत ने एक मर्द को कंधों पर उठाया हुआ है।
ये तस्वीर है महाराष्ट्र पंचायत चुनाव की, जहां पुणे में पति की जीत पर खुश पत्नी ने उसे कंधे पर बिठाकर गांवभर की सैर कराई। सुनहरी जरी की पीली साड़ी पहने महिला ने एक हाथ से विक्ट्री का संकेत बनाया है और दूसरे हाथ से पति को संभाले हुए है। खुशी से दमकते चेहरे पर सहजता है, जैसे पति को नहीं, किसी बच्चे को कंधे पर बिठाया हो। चुनाव तो पति ने जीता, लेकिन इतिहास पत्नी ने रच दिया। ये तस्वीर अपनी सहजता में हमें ललकारती दिख रही है। ये उन तमाम मर्दों को डरा रही है जो रसोई में सख्ती से बंद जैम की बोतल खोलकर ही खुद को मर्द मान बैठे।
यूरोप में एक देश है ऑस्ट्रिया। यहां की राजधानी विएना में साल 1884 में सर्कस के तंबू के भीतर एक बच्ची जन्मी। केटी सैंडविना नाम की ये बच्ची जल्द ही अखबारों में दिखने लगी। केटी सर्कस की सुडौल, कमनीय लड़कियों की तरह हवा में नहीं उछलती थी। न ही पुरुषों के कसरती हाथों से निकलते हुए कोई करतब दिखाती थी। बॉक्स में बंद होकर कटने और फिर मुस्कुराते हुए जिंदा होने की खास औरतों वाली कला भी केटी को नहीं आती थी। लेकिन उसने जो कर दिखाया, वो इन सब पर भारी था। 12 साल की उम्र में ही केटी अपने से दोगुनी उम्र के पहलवानों को उठाने लगी।
मर्द का चरित्र है कि उसे किसी मर्द से दिक्कत हो, तो वो उसकी मां-बहन-बेटी को निशाना बनाता है, चाहे वो 5 साल की मासूम क्यों न हो इसके बाद केटी दुनियाभर में घूमते हुए मर्दानी मांसपेशियों को ललकारने लगी। साल 1902 में उसने अपने दौर के सबसे मजबूत लोगों में शुमार यूजीन सैंडो को वेटलिफ्टिंग में हरा दिया। लगभग 137 किलो वजन को केटी अपने सिर से ऊपर लेकर गईं और थामे रखा। वहीं यूजीन के मजबूत बाजू उस वजन को अपनी छाती तक लाने-भर से थरथरा उठे थे। कैमरे खटाखट चमकने लगे। पस्त मर्द प्रतिद्वंदी के बगल में केटी आराम से खड़ी थीं। केटी का प्रदर्शन देख चुकी अमेरिकी पत्रकार मार्गरेट मार्टिन ने लिखा था- वो अपने पति को अपने सिर से ऊपर उठाए गोल-गोल घुमा रही थीं। बेहद सहज, बेहद लापरवाह और हंसती हुई, जैसे हाथों में हड्डियों और मांस से बना वजनी इंसान न हो, रबर का खिलौना हो। पति की आंखें डर से मुंदी हुई नहीं थीं, बल्कि भरोसे से दपदपाती थीं। वो जानता था, चाहे जो हो, केटी उसे संभाले रखेगी।
पुणे की रेणुका इसी केटी का ताजा संस्करण हैं। तस्वीर को गौर से देखने पर उनके पैर नंगे दिखते हैं, जैसे रसोई से पूरनपोली बेलती छोड़ भाग आई हों। साधारण कद-काठी लेकिन गजब का आत्मविश्वास। जश्न के बाद वे घर लौटकर अधूरी पूरनपोली को आकार देंगी लेकिन इससे ये सच नहीं मिट सकेगा कि वे अपने पति को कंधों पर उठा सकती हैं। जब-जब रेणुका बाहर आएंगी, तब-तब गांव के मर्द अपनी बीवियों को कमजोर मानते ठिठकेंगे। वे महसूस करेंगे कि जो औरत उन्हें कांधे उठा सकती है, वो जरूरत पड़ने पर पटखनी भी दे सकती है।
लड़कियां नाजुक होती हैं। लड़के मजबूत। हम सारे यही सुनते पले-बढ़े। जिम जाने पर ट्रेनर लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग कसरतें सुझाता है। लड़कों के लिए वो जिससे मांसपेशियां कसें। लड़कियों के वो तरीके, जिससे वे कमनीय लगें। कोई लड़की मांसपेशियां बनाने वाली कसरतों का जिक्र कर दे तो ट्रेनर बिदक जाता है। जिम के इस फर्क की जड़ें काफी पुरानी हैं। प्राचीन ग्रीस में औरतों को ओलंपिक में हिस्सा लेने की इजाजत नहीं थी। साल 1879 में अमेरिका में एदा एंडरसन नाम की एक युवती ने मैराथन में भाग लेने की ख्वाहिश जताई तो उसकी रिक्वेस्ट एक बार में खारिज हो गई।
अब आगे बढ़ते हैं- साल 1960। एक के बाद एक ढेरों औरतों ने मैराथन में शामिल होने की अर्जी डाली। इस बार एक अलग ही वजह दी गई। कहा गया कि औरतें दौड़ेंगी तो उनके गर्भाशय पर असर पड़ेगा। इस बात की तस्दीक खुद कई अमेरिकी डॉक्टर्स ने की। जाहिर है, वे सारे के सारे मर्द डॉक्टर थे, जो भागती हुई औरतों की कल्पना से ही सहमे हुए थे। वे डरे हुए थे कि भागते हुए कहीं औरतें उनकी पहुंच से बाहर न निकल जाएं।
अब औरतें भाग रही हैं, वजन उठा रही हैं और रक्तस्त्राव से स्टेज पर मर नहीं रहीं। लेकिन तब भी मर्द ईगो डटा हुआ है। वो खुद ही दोहराए जाता है कि औरतें शारीरिक तौर पर कमजोर तो हैं। वो जानता है कि उसकी बॉस कोई औरत हो सकती है। उसकी बीवी ज्यादा बेहतर नौकरी कर सकती है। उसकी बहन ज्यादा पैसे कमा सकती है। लेकिन इनमें से कोई भी सबसे ऊंची अलमारी की आखिरी शीशी बगैर मेरी मदद के नहीं निकाल सकती।
मर्दों, वक्त सरक रहा है। बचकाने लॉकर-रूम मजाक छोड़कर ज्यादा नहीं तो अपने कद जितने ही बड़े हो जाओ। जेरोन्टोलॉजी रिसर्च ग्रुप के मुताबिक दुनियाभर में अब तक केवल 43 लोग 110 साल से ज्यादा की उम्र देख सके और इनमें से 42 औरतें रहीं। जो एकमात्र मर्द लंबा जिया, वो शायद दुनिया का इकलौता मर्द फेमिनिस्ट रहा होगा। सोचिए, जो औरतें खून-खराबे, धूल-धुएं और नफरत से भरी दुनिया में टिक सकी हैं, वो आपसे इक्कीस नहीं, तो उन्नीस भी कतई नहीं होंगी। पति को कंधे पर उठाए झूमती रेणुका इसका जिंदा सबूत हैं।
मनीषा पांडेय
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)