हाल की एक सर्द सुबह रेडियो पर साहिर लुधियानवी के गाने बज रहे थे। सुनते हुए फैज की वह पंति भी याद आ रही थी- मुझसे पहली सी मोहबत मेरी महबूब न मांग। सत्तर के दशक में आकाशवाणी पर फौजी भाइयों के लिए आने वाला जयमाला कार्यक्रम याद आने लगा। तब एक रात इसे मशहूर क्रिकेटर सुनील गावस्कर ने भी पेश किया था और जो गाना उन्होंने अपनी पत्नी मार्शनील को समर्पित किया, वह था- ‘चांद सी महबूबा हो मेरी, कब ऐसा मैंने सोचा था/हां तुम बिल्कुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था।’ इस गाने के बारे में सोचकर एकाएक लगा कि एक समय साहित्य की तमाम विधाओं और हिंदी फिल्मों में सौंदर्य का बोलबाला हुआ करता था। कोई कविता, कोई गीत इसके बिना पूरा ही नहीं होता था। उनका पोर-पोर नख-शिख वर्णन, रस, छंद, अलंकार से भरा रहता था। उससे भी पहले नायिका भेद कवियों का प्रिय विषय था। तब पश्चिम के 36-24-36 वाले मानकों की तो कोई जानकारी कवियों, लेखकों को नहीं थी, लेकिन ‘कटि को कंचन काटि के कुचन माहिं धरि दीन’ जैसी पंक्तियों को सब खूब याद रखते थे। कविताओं और महाकाव्यों में भी धीरोदात्त नायक या लोककथाओं के राजकुमार सुंदरता के प्रतीक होते थे। मंदिरों की मूर्तियों को ध्यान से देखें तो वहां भी न केवल स्त्रियों बल्कि पुरुषों के भी अंग-प्रत्यंग में सौंदर्य झलकता है। सुंदरता के प्रति जागरूकता सिंधु घाटी की सभ्यता में भी मिलती है। वहां खनन में पाई गई 3000 साल से भी पुरानी मूर्तियों में पुरुषों के सलीकेदार दाढ़ीबाल और स्त्रियों के सुगठित शरीर पर गहने नजर आते हैं।
जाहिर है, दोनों ही खुद को सुंदर दिखाना चाहते थे। देखा जाए तो सुंदरता के प्रति हम सहज रूप से आकर्षित होते हैं। कोई फूल, कोई पक्षी या कोई इमारत भी हमें सुंदर लगती है तो अपनी तरफ खींचती है। अपने इतने बड़े देश में सौंदर्य के कितने सारे मानक मौजूद हैं। हर इलाके में थोड़ा अलग। कश्मीर में गौर वर्ण लोग मिलते हैं तो दक्षिण में श्याम वर्ण, लेकिन दोनों जगह सुंदर लोग अपनी-अपनी तरह से सुंदर होते हैं। फिल्मी दुनिया में दिनोंदिन सुंदरता का मानक पतलादुबला शरीर होता गया है, लेकिन हमारी प्रदर्शन कलाओं में स्त्रियां प्राय: भरे-पूरे शरीर की होती हैं और सुंदर लगती हैं। पुराने छपे चित्र देखें या मूर्तियां तो वहां औरतों के शरीर का गठन भी ऐसा ही हृष्ट-पुष्ट है। अधिकांश महाकाव्यों में भी इसी तरह का सौंदर्य वर्णन मिलता है। सुंदरता का एक अर्थ हमारे रिश्तों से भी जुड़ा है। हर मां को अपना बच्चा और हर बच्चे को अपनी मां सुंदर दिखती है। कुछ दिन पहले मैंने एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल का इंटरव्यू पढ़ा था। इसमें लक्ष्मी ने कहा था कि ‘मुझे लगता था, मेरी बेटी मुझे देखकर डर जाएगी। लेकिन वह तो मुझे बहुत चाहती है।’ अपनी मां के प्रति ऐसा ही सौंदर्यबोध आप किसी भी बच्चे में पा सकते हैं। अन्यथा न लें तो यहां रामचंद्र शुल का वह कथन भी दोहराया जा सकता है कि बंदर को बंदरिया के मुख में ही सौंदर्य नजर आता होगा। यानी सौंदर्य के लिए सार्वभौम मानक तय नहीं किए जा सकते। सौंदर्य की परिभाषाएं तब बहुत बुरी लगती हैं, जब वे किसी को नीचा दिखाने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं।
जैसे किसी लड़की को उसकी शल के आधार पर विवाह के लिए रिजेट करना या किसी की शल-सूरत पर हंसना, अपने सौंदर्य के मानक दूसरे पर लादकर उसे जीवन की रेस से ही बाहर कर देना। इधर जब से भारतीय समाज में मनोरंजन उद्योग बढ़ा है, तब से सौंदर्य के एकांगी मानक हर किसी पर लाद दिए गए हैं। इनकी सबसे ज्यादा शिकार औरतें बनी हैं, लेकिन जोड़ा इन्हें स्त्रीवाद और स्त्री अधिकारों से जाता है। पहले जो पैदाइशी सुंदर होता था, वही सुंदर माना जाता था। बाकी को उसके किसी न किसी गुण या अदा से सुंदर माना जाता था। किसी को असुंदर बताना चुगलखोरी का हिस्सा था। आम लोगों के बीच ऐसा कोई चलन नहीं था। लेकिन अभी आपको सुंदर दिखाने, बनाने के लिए पूरा बाजार और तंत्र मौजूद है, जो आप में असुंदर होने का एहसास भी जगाता है। वह आपको सुंदरता की मुख्यधारा में लाने के लिए प्रस्तुत है, बस आपकी जेब में पर्याप्त पैसे होने चाहिए। एक समय उत्तर भारत में तीखे नाक-नश को सौंदर्य का मानक समझा जाता था। लेकिन सौंदर्य प्रसाधन निर्माताओं को लगा होगा कि ऐसे मानकों से बाजार सिकुड़ता है। मुनाफा तो तभी बढ़ेगा जब ग्राहक बढ़ें। इसलिए पिछले तीन दशकों में सौंदर्य को त्वचा से जोड़ दिया गया। पंचलाइन दी गई- ‘उसकी त्वचा से तो उसकी उम्र का पता ही नहीं चलता।’ इसमें सभी तरह के भेदभाव अपने आप दूर हो गए, बची रह गई सिर्फ त्वचा। इस ‘स्किन-डीप’ सौंदर्य के प्रति बढ़ते लगाव का ही परिणाम है कि न केवल शहरों के हर गली-नुक्कड़ पर बल्कि गांवों में भी यूटी पार्लर खुल गए हैं।
वहां महिलाएं अपना काम शुरू करना चाहती हैं तो वे पापड़-बडिय़ां बनाने, बकरी-मुर्गी पालने या खेती करने के लिए नहीं, यूटी पार्लर चलाने के लिए ऋ ण मांगती हैं। सुनील गावस्कर द्वारा पेश जयमाला कार्यक्रम में उन्होंने जो गाना अपनी पत्नी को समर्पित किया था, उसके बारे में सोचकर लगा कि अपने देश में सौंदर्य का बाजार जितना बढ़ा, उतना ही सौंदर्य वर्णन कविता-कहानी और फिल्मों से दूर होता गया। साहित्य या सिनेमा में अब कोई अपनी प्रेमिका को देखकर ‘चांद सी महबूबा हो मेरी’ जैसा कुछ नहीं गाता। कला माध्यमों में संघर्ष का विचार पनपता रहा और जीवन में महिलाएं स्वास्थ्य की कीमत पर सुंदर दिखने की दौड़ में शामिल होती गईं। स्त्रीवादी विचार ने कहा- सुंदर दिखने-दिखाने का बोझ सिर्फ औरतें ही यों ढोएं? लेकिन सौंदर्य के मानकों को चौबीसों घंटे पीठ पर लादे रहने की नियति से इस विचार की कई प्रवक्ता भी न मुक्त थीं, न हैं। वैसे भी विरोध की राजनीति कुछ ऐसी होती है कि जिसका विरोध करते हैं, वैसे ही होते जाते हैं। मजेदार बात यह कि एक तरफ सौंदर्य प्रतियोगिताएं, ‘यूटी विद ब्रेन्स’ और ‘यूटी विद एंपथी’ (बुद्धिमान-दयावान सौंदर्य) जैसे नुस्खों के जरिये अपना औचित्य साबित करने में जुटी हैं, दूसरी तरफ साहित्य-कला की तमाम विधाओं में सौंदर्य को पराई चीज समझा जाने लगा है। हालांकि साहित्य के बारे में कहा यही जाता है कि उसका काम समाज की सच्ची तस्वीर दिखाना है। कुछ तो बात है कि किसी की सुंदरता पर आज दिल पर छप जाने लायक एक शद नहीं लिखा जाता, जबकि प्रेम जैसे कोमल रिश्ते के लिए ‘इश्क कमीना’ जैसा जुमला चल जाता है।
क्षमा शर्मा
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)