अपनी पार्टी बना लें राहुल

0
833

हर बात राहुल गांधी पर डालने का चलन हो गया है। जहां उनकी विपक्षी भाजपा ने उन्हें अयोग्य नेता साबित करने में लगी है, वहीं उनके कई कांग्रेसी सहयोगी पीठ पीछे राहुल को पार्टी में बढ़ते संकट के लिए जिमेदार ठहराते हैं। जब भी कोई कांग्रेस छोड़ता है क्या पार्टी किसी चुनाव में हारती है, राहुल गांधी ही मुख्य दोषी होते हैं। इसलिए सीधा सवाल यह है कि या बिना राहुल की कांग्रेस नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा से लडऩे में बेहतर होगी? गांधी वंश की पांचवीं पीढ़ी के रूप में राहुल की मौजूदगी के कारण मोदी ‘नामदार बनाम कामदार’ कथानक से खेल पाते हैं। इसके अलावा राहुल गांधी की ‘पप्पू’ छवि बनाने के लिए आधे-पूरे झूठ और आत्म-लक्ष्यों को मिलाकर बनाए गए भाजपा के अभियान ने स्पष्ट रूप से करोड़ों मतदाताओं को प्रभावित किया है। यहां तक कि जब वे वाजिब सवाल उठाते हैं, तब भी राहुल गांधी की अयोग्य नेता की छवि ही बनती है। और राजनीति में छवि सुधारना मुश्किल है। और ऐसा नहीं है कि कांग्रेस 17 वर्ष पहले, राहुल गांधी के राजनीति में आने से पहले बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रही थी। यह आखिर ऐसी पार्टी है जिसने 1984 के बाद से कभी केंद्र में बहुमत नहीं जीता।

उप्र और हिन्दी पट्टी में गिरावट 1980 के दशक में आई, जब भारतीय राजनीति की दिशा बदली, जहां कांग्रेस की खोखली धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के प्रति कमजोर प्रतिबद्धता को मंदिर और मंडल की ताकतों के उदय ने सामने ला दिया। इसके अलावा, इंदिरा गांधी के वर्षों में विकसित हुई एक दबंग ‘हाईकमान’ संस्कृति का मतलब था कि कांग्रेस के भीतर क्षेत्रीय नेताओं को व्यवस्थित रूप से कमजोर कर देना। देवराज उर्स से लेकर शरद पवार और ममता बनर्जी तक, जिस भी राज्य स्तरीय नेता ने हाईकमान को चुनौती देने की कोशिश दी, उसे या तो बेदखल कर दिया या खुद की क्षेत्रीय पार्टी बनाने मजबूर कर दिया। इसमें हैरानी नहीं कि आठ ऐसे पूर्व कांग्रेस नेता है जो आज मुख्यमंत्री हैं। संगठनात्मक गिरावट के लिए सिर्फ राहुल गांधी को दोष नहीं दे सकते क्योंकि यह उनके राजनीति में आने से पहले ही शुरू हो गई थी। हालांकि उन्हें इसके लिए जिम्मेदार ठहरा सकते हैं कि वे यह नहीं पहचान पाए कि मौजूदा कांग्रेस संघ परिवार की वैचारिक विपक्ष नहीं है, न ही भाजपा को हराने में सक्षम चुनावी मशीन है। कांग्रेस ढुलमुल विचारधारा वाली पार्टी है, जिसके सत्ता के भूखे नेताओं को वीआईपी विशेषाधिकार की आदत है।

वह रातोंरात सख्त धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं की क्रांतिकारी पार्टी नहीं बन सकती। हाल ही में कई नेताओं ने कांग्रेस छोड़ी है, जिसमें राहुल के कुछ करीबी भी हैं, यह उस राजनीतिक संस्कृति की वास्तविकता बताता है जिसमें नेता लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहने में सहज नहीं हैं। इसीलिए अगर राहुल वास्तव में कांग्रेस में ‘लोकतंत्रीकरण’ या सुधार चाहते हैं, तो उन्हें अहसास होना चाहिए कि वे यह कांग्रेस में रहते हुए नहीं कर सकते। सच्चाई यह है कि आप मौजूदा कांग्रेस में या शायद चुनावी राजनीति में भी रहकर यह दावा नहीं कर सकते कि आप ‘नैतिक’ क्रांति का नेतृत्व कर रहे हैं। उदाहरण के लिए आप धर्मनिरपेक्ष रूढि़वादी होने का दावा कर, सत्ता के लिए महाराष्ट्र में शिव सेना से या बंगाल में इस्लामी मौलवी से गठबंधन नहीं कर सकते।

अगर राहुल गांधी सच में भाजपा-आरएसएस के खिलाफ विचारधारा का युद्ध छेडऩा चाहते हैं तो वे गलत सेना का नेतृत्व कर रहे हैं। अगर वे मूल्य आधारित राजनीति के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो उन्हें मौजूदा ‘इंदिरा-राजीव-सोनिया’ कांग्रेस को तोडऩे का जोखिम उठाना होगा और खुद की पार्टी बनाकर अपना रास्ता बनाना होगा। अगर उनका बेहतर राजनीति का विजन है, तो उन्हें उसके लिए मोदी सरकार पर ट्विटर पर हमला करने की बजाय सड़कों पर उतरकर लोगों से जुडऩा होगा, अधिकार की संस्कृति की जगह समतावाद को लाना होगा। यही एक तरीका है जिससे वे वंशवाद के जाल से निकल पाएंगे। राहुल गांधी को फैसला करना होगा कि या वे सत्ता की निर्मम तलाश में मुख्य भूमिका निभाना चाहते हैं या विचारों की अकादमिक दुनिया में ही काम करना चाहते है? यथास्थिति में बने रहना अब न उनके लिए विकल्प है, न कांग्रेस के लिए।

राजदीप सरदेसाई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here