महेंद्र सिंह टिकैत की बात ही अलग थी

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केंद्र सरकार द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध आंदोलन 75 दिन पार कर चुका है। सरकार और किसान संगठन अपने-अपने रुख पर अडिग हैं। इस आंदोलन को देखकर बरबस ही चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की याद आती है। उन्होंने किसान आंदोलन के स्वरूप को व्यापक और आक्रामक बनाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। इससे पहले राजनीतिक दलों के किसान संगठन प्रतीकात्मक धरना-प्रदर्शन और हड़ताल आयोजित करते थे। सभी दल इस मोर्चे पर अपनी गतिविधियां संचालित करते थे, लेकिन किसी भी दल का किसान संगठन कोई बड़ा आंदोलन संचालित करने में कामयाब नहीं रहा। चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाले लोकदल का अलग से कोई किसान संगठन नहीं था क्योंकि वे इसे किसान हितों का ही दल मानते थे।

खेती की उपेक्षा

1952 में प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र के लिए 35% बजट राशि आवंटित की गई और औद्योगिक क्षेत्र के कार्यों के लिए लगभग 15 फीसदी राशि लेकिन 1957 और 62 की पंचवर्षीय योजनाओं में इस धनराशि की अदला-बदली करते हुए कृषि क्षेत्र का आवंटन 15% कर दिया गया जबकि औद्योगिक विकास के लिए 35% से अधिक राशि रखी गई। हालांकि मृत्यु से पूर्व पंडित नेहरू ने विनम्रतापूर्वक इसके लिए अफसोस जाहिर किया और भविष्य में कृषि क्षेत्र को और स्वाबलंबी बनाने की रणनीति पर कार्य करने का आश्वासन भी दिया। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। गांव के बजाय शहर, कृषि के बजाय उद्योग की नीति अमल में आ चुकी थी। आज के किसान आंदोलन की जड़ में भी यही मुख्य मुद्दे हैं। धरनास्थलों पर सूचना पट्ट पर लिखे नारे आजादी से पहले और आजादी के बाद के किसान शोषण की दास्तां बयान कर रहे हैं।

महेंद्र सिंह टिकैत ने वर्षों से चल रहे किसान आंदोलन को आक्रामकता भी प्रदान की और ठेठ देहाती अंदाज भी। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के सिसौली गांव में जन्मे चौधरी टिकैत अंतिम दिनों में महात्मा टिकैत के नाम से संबोधित किए जाते थे। मुजफ्फरनगर जनपद देश के समृद्ध जिलों में शुमार रहा है। ब्रिटिश शासन काल से पानी के वितरण का ऐसा सुनियोजित तंत्र कम जगह पर उपलब्ध है, जैसा गंगा-जमुना के बीच कृषि क्षेत्र का है। गेहूं, धान, गन्ना, मक्का, सब्जी, फल आदि के उत्पादन ने इस क्षेत्र को आर्थिक रूप से काफी शक्तिशाली बना दिया है। अगर कहा जाए कि इस क्षेत्र की शत प्रतिशत भूमि सिंचित है तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

चौधरी चरण सिंह की लंबी बीमारी और मृत्यु के बाद से किसान राजनीति के खालीपन को भरने का काम चौधरी टिकैत ने बखूबी किया। 27 जनवरी 1987 को मुजफ्फरनगर के शामली शहर के पास करमूखेड़ी बिजली घर पर बिजली के बढ़े दामों के विरुद्ध चल रहे धरने को वीर बहादुर सिंह सरकार की अदूरदर्शिता ने राष्ट्रीय आंदोलन में तब्दील कर दिया। इससे पूर्व 17 अक्टूबर 1986 में सिसौली में एक महापंचायत हुई थी, जिसमें सभी जाति एवं धर्मों की खापों के चौधरियों और किसानों ने उन्हें अपना नेता और किसान यूनियन अध्यक्ष चुन लिया। दहेज प्रथा और मृत्यु भोज से जुड़े दिखावों, नशाखोरी, भ्रूण हत्या जैसी बुराइयों से जुड़ते-जुड़ते ये आंदोलन चौधरी टिकैत की शक्ल में किसान क्रांति का घोषणापत्र बन गए।

अपनी बात को आक्रामक तरीके से रखने के अंदाज ने भी उन्हें लोकप्रिय बनाया। चौधरी देवीलाल जब जनता दल के गठन के प्रयास में लगे थे, उन्होंने फरीदाबाद के सूरजकुंड स्थित गेस्ट हाउस में सभी विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं को आमंत्रित किया। मीटिंग में वीपी सिंह, अरुण नेहरू, रामधन, सत्यपाल मलिक, मुफ्ती मोहम्मद सईद, रामकृष्ण हेगड़े, मधु दंडवते, शरद यादव आदि मौजूद थे। मीटिंग के दौरान सूचना मिली कि चौधरी टिकैत भी बैठक में शामिल होने आ गए हैं। उनके साथ कई दर्जन कार्यकर्ता थे और वे जिद कर रहे थे कि सभी को प्रवेश दें। काफी मान मनौवल के बाद दो प्रतिनिधि अंदर आए।

उन्होंने आते ही अपने संबोधन में नेताओं पर प्रहार शुरू कर दिए कि अंदर बिना जनाधार के नेताओं का जमघट लगा है और जनाधार वाले नेताओं को अंदर नहीं आने दिया जा रहा है। बाद में जनता सरकार के गठन के बाद उन्होंने चौधरी देवी लाल को सिसौली आमंत्रित किया। चौधरी देवीलाल सिसौली पधारे, लेकिन सभी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब टिकैत ने अपने संबोधन में देवीलाल के उप-प्रधानमंत्री से उप हटा दिया और घोषणा की कि किसानों के प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल हैं और उनकी राजधानी दिल्ली नहीं सिसौली है। इस प्रकार का आचरण उन्होंने मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री काल में अपने सिसौली आवास पर भी किया, जब सत्यपाल मलिक, रसीद मसूद और मैं एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में उनसे वार्ता करने पहुंचे थे। कंधे पर फावड़ा रखे चौधरी टिकैत आए और हमसे कहने लगे- आप लोग नेता हैं, आपका गुजारा बगैर काम के हो जाता है। हमें खेत पर काम करना पड़ता है।

फैसला हुक्के पर

यही आक्रामक शैली उन्होंने आंदोलन में भी जारी रखी। हुक्का, राशन-पानी और कपड़े-लत्ते के साथ धरने का चलन उनकी ही देन है। मेरठ कमिश्नरी पर पहला धरना उन्होंने 27 जनवरी से लेकर 19 फरवरी 1988 तक दिया। लगभग 5 लाख किसान इसमें शामिल हुए थे। सबके खाने आदि की व्यवस्था आज की तरह वे स्वयं करते थे। राजीव गांधी के दूत के रूप में राजेश पायलट वार्ताकार नियुक्त हुए। मांगें मानी गईं और धरना समाप्त हुआ। 2 अक्टूबर 1989 को कई किसान संगठनों ने एक साथ बोट क्लब पर धरना दिया, जिसमें खाद-बिजली के बढ़े दामों में कटौती करने, गन्ने का मूल्य बढ़ाने और समय पर भुगतान करने की मांगें शामिल थीं। अभी राजधानी दिल्ली के चारों तरफ धरने का नजारा देखते हुए चौधरी टिकैत की याद ताजा हो जाती है। उन्होंने हिंसा को कभी किसी आंदोलन के पास नहीं फटकने दिया। बंद कमरों के बजाय हुक्के पर सार्वजनिक तौर पर फैसले लेने की परंपरा उनकी ही थी।

केसी त्यागी
(लेखक जेडी-यू के प्रधान महासचिव हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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