स्वीकारनी होगी लक्ष्मण रेखा

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सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा की और राजद्रोह का कठोरतम कानून सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर लागू करने के राज्य सरकारों के प्रयासों को नितांत अनुचित ठहरा दिया। न्याय के मंदिर से यही अपेक्षा थी। सर्वोच्च अदालत ने यह अवश्य स्पष्ट कर दिया कि हिंसा के जरिये अराजकता पैदा करने वाली उत्तेजक देशद्रोह जैसी प्रचार सामग्री पर इस कानून का प्रयोग संभव है। इस निर्णय से देशभर के पत्रकारों को बड़ी राहत महसूस हुई है, लेकिन राज्य सरकारों, उनकी पुलिस को भी अपनी सीमाओं को समझकर मनमानी की प्रवृत्ति को बदलना होगा।

यह फैसला देश के एक नामी पत्रकार विनोद दुआ के एक टीवी कार्यक्रम में की गई टिप्पणी पर हिमाचल प्रदेश में राजद्रोह का मुकदमा दर्ज होने के विरुद्ध दायर याचिका पर आया है। लेकिन कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसे मुकदमे दर्ज हुए हैं। संभवतः कुछ गंभीर हिंसा के प्रमाणित मामलों को छोड़कर अन्य प्रकरणों में निचली अदालतों से ही पत्रकार दोषमुक्त घोषित हो जाएंगे। यह विवाद एक बार फिर इस तथ्य को रेखांकित करता है कि राजद्रोह, सरकारी गोपनीयता के नाम पर ब्रिटिश राज के काले कानूनों में आवश्यक संशोधन संसद द्वारा सर्वानुमति से शीघ्र होने चाहिए।

इसके साथ ही यह मुद्दा भी गंभीर है कि प्रिंट, टीवी चैनल, सीरियल, फिल्म, सोशल मीडिया को कितनी आजादी और उन पर कितना नियंत्रण हो? सरकार, प्रतिपक्ष और समाज कभी खुश, कभी नाराज। नियम-कानून, आचार संहिताएं,पुलिस व अदालत के सारे निर्देशों के बावजूद समस्याएं कम होने के बजाय बढ़ रही हैं। सूचना संसार कभी सुहाना, कभी भूकंप की तरह डगमगाता हुआ तो कभी ज्वालामुखी की तरह फटता दिखाई देता है। आधुनिकतम टेक्नोलॉजी ने नियंत्रण कठिन कर दिया है। सत्ता व्यवस्था ही नहीं, अपराधी-माफिया, आतंकवादी समूह से भी दबाव, विदेशी ताकतों का प्रलोभन और प्रभाव संपूर्ण देश के लिए खतरनाक बन रहा है। इन परिस्थितियों में विश्वसनीयता तथा भविष्य की चिंता स्वाभाविक है। यह भी सही है कि कश्मीर के आतंकवादी समूह और छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों में हिंसा, अत्याचार और आतंक फैलाने वाले नक्सली संगठनों या उनके सरगनाओं को मानव अधिकार के नाम पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करने वालों पर कड़ी कार्रवाई होनी ही चाहिए, फिर भले ही पत्रकारिता या चिकित्सा अथवा स्वयंसेवीसेवी संस्था का चोगा पहने हुए हों। कार्यपालिका, न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र तय हैं तो पत्रकारिता की भी लक्ष्मण रेखा को स्वीकारना होगा।

ब्रिटेन में केबल टीवी एक्ट का प्राधिकरण है। भारत में जब तक ऐसी नियामक संस्था नहीं हो, तब तक भारतीय प्रेस परिषद् द्वारा निर्धारित नियमों, आचार संहिता का पालन टीवी-डिजिटल मीडिया में भी किया जाए। फिलहाल, प्रिंट मीडिया का प्रभावशाली वर्ग ही प्रेस परिषद् के नियम-संहिता की परवाह नहीं कर रहा है, क्योंकि उसके पास दंड देने का कोई अधिकार नहीं है, जबकि प्रेस परिषद् के अध्यक्ष सेवानिवृत्त वरिष्ठ न्यायाधीश ही होते हैं। इन दिनों तो परिषद् ही गंभीर विवादों में उलझ गई है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान में हर नागरिक के लिए है। पत्रकार उसी अधिकार का उपयोग करते हैं। समाज में हर नागरिक के लिए मनुष्यता, नैतिकता, सच्चाई और ईमानदारी के साथ कर्तव्य के सामान्य सिद्धांत लागू होते हैं। पत्रकारों पर भी वह लागू होने चाहिए। सरकार से नियंत्रित व्यवस्था नहीं हो, लेकिन संसद, न्याय पालिका और पत्रकार बिरादरी द्वारा बनाई गई पंचायत यानी मीडिया परिषद् जैसी संस्था के मार्गदर्शी नियम, लक्ष्मण रेखा का पालन तो हो।

न्यायपालिका के सामने एक गंभीर मुद्दा भी उठाया जाता रहा है कि मानहानि कानून का दुरुपयोग भी हो रहा है, जिससे ईमानदार मीडियाकर्मी को तमाम नेता, अधिकारी या अपराधी तंग करते हैं। अदालतों में मामले वर्षों तक लंबित रहते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि समय रहते सरकार, संसद, न्यायपालिका, मीडिया नए सिरे से मीडिया के नए नियम कानून, आचार संहिता को तैयार करे। नया मीडिया आयोग, मीडिया परिषद् बने। पुराने गोपनीयता अथवा मानहानि के कानूनों की समीक्षा हो। तभी तो सही अर्थों में भारतीय गणतंत्र को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ साबित किया जा सकेगा।

आलोक मेहता
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक पद्मश्री से सम्मानित संपादक और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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