एक तरफ अपने खून-पसीने से धरती का सीना चीर कर अनाज उपजाने वाले खुद्दार और मेहनतकश किसान हैं तो दूसरी ओर बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ के अय्यारों की तरह की सरकार है। अय्यारों में जितनी खूबियां होती थीं वो सारी इस सरकार में भी है। जैसे अय्यार ‘लखलखा’ सुंघा कर लोगों को बेहोश कर देते थे, कोई भी भेष धर लेते थे, कहीं भी झूठ बोल देते थे, लोगों को बरगला देते थे और जरूरत होने पर काम तमाम कर देते थे। वैसे ही यह सरकार करती है। इसने भी देशभक्ति का ‘लखलखा’ सुंघा कर देश की बड़ी आबादी को बेहोश किया है। नीम बेहोशी में पहुंचे ये लोग अपने अन्नदाता किसानों को ही आतंकवादी, देश विरोधी, चीन-पाकिस्तान का एजेंट और पता नहीं क्या-क्या कह रहे हैं। वे ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि सरकार उनसे ऐसा कहलवाना चाहती है और वे नीम बेहोशी की हालत में यह बड़बड़ा रहे हैं।
अय्यारों की तरह इस सरकार के भी कई रूप हैं, कई भेष हैं, कई झूठ हैं। सरकार हर मुंह से अलग अलग बात कह रही है। सरकार के एक मंत्री राव साहेब दानवे ने प्रदर्शन कर रहे किसानों को चीन और पाकिस्तान का एजेंट बताया तो दूसरे मंत्री पीयूष गोयल ने उन्हें नक्सलियों और माओवादियों के असर में आया हुआ बताया। एक मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की व्यवस्था जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध है तो किसानों का कहना है कि आठ दिसंबर की बातचीत में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उनसे कहा कि सभी फसलों पर एमएसपी देना संभव नहीं है क्योंकि इसके लिए 17 लाख करोड़ रुपए की जरूरत होगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि उनके समझाने के बावजूद अगर किसानों के मन में कोई आशंका है तो उनकी सरकार विनम्रतापूर्वक, हाथ जोड़ कर, सर झुका कर किसानों से बात करने को तैयार है तो उनके एक मंत्री पुरुषोत्तम रूपाला कह रहे हैं कि कृषि कानूनों में बदलाव करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि ये कानून बिल्कुल ठीक हैं। सरकार के आधिकारिक प्रस्ताव में भी कम से कम 12 बिंदुओं पर सरकार बदलाव के लिए राजी है पर कृषि राज्यमंत्री रूपाला कह रहे हैं कि कानून में कोई बदलाव करने की जरूरत नहीं है। सोचें, किसान या देश का नागरिक किसकी बात पर भरोसा करें! प्रधानमंत्री अरदास के लिए सिखों के पवित्र तीर्थस्थल गुरुद्वारा रकाबगंज पहुंच जाते हैं और उनकी पार्टी के नेता-मंत्री आंदोलन कर रहे सिख किसानों को खालिस्तानी आतंकवादी बता कर उनका अपमान करते हैं! तभी यह सवाल है कि किसान सरकार के किस रूप को सही मानें? गुरुद्वारा रकाबगंज में माथा टेकते प्रधानमंत्री को या जाट-सिख किसानों को आतंकवादी और पाकिस्तान-चीन का एजेंट बताने वाले मंत्रियों को?
एक तरफ सरकार रोज कह रही है कि वह किसानों से हर पहलू पर बात करने को तैयार है और दूसरी ओर अपनी पार्टी के या अपना समर्थन करने वाले किसान संगठनों को बुला कर उनसे विवादित कृषि कानूनों के समर्थन की घोषणा करा रही है। किसान पिछले 26 दिन से दिल्ली की तीन-चार डिग्री की ठंड में दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हैं और सरकार ने 12 दिन से उनसे बातचीत बंद करके अपने समर्थक किसान संगठनों से मुलाकात और बात की है। केंद्र सरकार और किसानों के बीच आखिरी बातचीत आठ दिसंबर को हुई थी। उसके 12 दिन के बाद किसानों को बातचीत का न्योता दिया गया तो वह भी कृषि मंत्रालय के संयुक्त सचिव की ओर से, यह कहते हुए कि किसान अपनी पसंद की तारीख को सरकार से वार्ता कर सकते हैं। इससे ऐसा लग रहा है जैसे गरज किसान की है तो वह वार्ता के लिए आए अन्यथा वहीं सिंघू बॉर्डर, चिल्ला बॉर्डर, गाजीपुर गेट या टिकरी बॉर्डर पर बैठा रहे!
सरकार की अय्यारी ऐसी है कि पांच दौर की वार्ता के बाद कृषि मंत्री ने खुला पत्र लिखा कि किसान अपनी आपत्तियां बताएं तो सरकार उन्हें दूर करने का प्रयास करेगी। सोचें, पांच दौर में क्या बात हुई थी, जो सरकार को किसानों की आपत्तियों का पता नहीं है? अगर आपत्तियों का पता नहीं है तो किन बातों का जवाब देते हुए कृषि मंत्रालय ने आठ पन्नों का प्रस्ताव किसानों को भेजा? अगर आपत्तियों की जानकारी नहीं है तो एमएसपी पर लिखित गारंटी देने या कांट्रैक्ट खेती के प्रस्तावों में रजिस्ट्रेशन के नियम से लेकर विवाद की स्थिति में सुनवाई की व्यवस्था बदलने तक की गारंटी किस आधार पर दी जा रही है? किसानों की सारी आपत्तियां सरकार को पता हैं और उनकीं मांगों का भी पता है, पर देश के लोगों को गुमराह करना है कि किसान सरकार को अपनी आपत्ति नहीं बता रहे हैं।
किसान आंदोलन को कमजोर करने के लिए सरकार जितनी तिकड़में कर रही हैं उनके बारे में जानेंगे तो ‘चंद्रकांता संतति’ के अय्यार भोले-भाले दिखने लगेंगे। किसानों के आंदोलन को तोड़ने के लिए आय कर विभाग की टीम ने पंजाब के आढ़तियों के यहां छापे मारे हैं। पंजाब के दस बड़े आढ़तियों के यहां पिछले हफ्ते आय कर विभाग का छापा पड़ा। आढ़तियों का दावा है कि छापा मारने वाली पूरी टीम दिल्ली की थी। किसी स्थानीय अधिकारी को इसमें शामिल नहीं किया गया था। चूंकि सरकार को लग रहा है कि पंजाब के पंजीकृत आढ़तिए किसान आंदोलन को हर तरह की मदद और समर्थन दे रहे हैं इसलिए उन पर कार्रवाई करेंगे तो किसान आंदोलन कमजोर होगा। सरकार इतने पर नहीं रूकी, पंजाब के किसान संगठनों को इस बात के लिए नोटिस दिया जा रहा है कि उनको विदेशों से चंदा मिल रहा है। किसान संगठनों से विदेशी चंदा लेने का सर्टिफिकेट मांगा जा रहा है। केंद्रीय मंत्री अमित शाह मिदनापुर में हजारों लोगों की रैली करते हैं या बोलपुर में रोड शो करते हैं तो उससे कोरोना नहीं फैलता है लेकिन किसानों के धरने-प्रदर्शन से कोरोना फैलने का खतरा है और इसलिए किसानों के ऊपर मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं।
यह सब जोर-जबरदस्ती वाली तिकड़में हैं, जो पहले की सारी तिकड़मों के फेल हो जाने के बाद आजमाई जा रही हैं। पहले तो अलग अलग राज्यों के किसानों को अलग अलग बुला कर उनमें फूट डालने की कोशिश की गई। कमेटी बनाने का प्रस्ताव देकर बरगलाने का प्रयास किया गया। कई दिन तक बातचीत के लिए बुला कर सद्भाव का दिखावा किया गया। इसके बाद आंदोलन को बदनाम करने और किसानों को विलेन बनाने का सिलसिला शुरू हुआ। फिर प्रधानमंत्री और मंत्रियों द्वारा कृषि कानूनों के कथित फायदे समझा कर देश में जनमत बनाना शुरू हुआ। इसके लिए भाजपा सात सौ प्रेस कांफ्रेंस और हजारों चौपाल लगाने वाली है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट का उपाय भी आजमाया जा रहा है। अभी तक ये सब उपाय काम नहीं आए हैं तो जोर-जबरदस्ती वाले उपाय किए जाने लगे हैं।
सोचें, सरकार की ऐसी अय्यारी के आगे किसान अगर टिके हुए हैं तो वह कौन सी चीज है, जो उनको ताकत दे रही है? वह चीज है तमाम किस्म की मुश्किलों से साल दर साल लड़ने का उनका जज्बा, उनका अनुभव। वे अपनी पूरी जिंदगी प्रकृति की पैदा की हुई मुश्किलों से लड़ते हैं, कभी बहुत ज्यादा बारिश से, कभी बाढ़ से, कभी आंधी-तूफान से, कभी ओले पड़ने से, कभी टिड्डियों के हमले से तो कभी कम बारिश या बिल्कुल बारिश नहीं होने से! जब प्रकृति की पैदा की हुई मुश्किलों का सामना वे बहादुरी के साथ कर लेते हैं तो इंसान की पैदा की हुई मुश्किलों का मुकाबला तो उनके लिए आसान ही होगा!
अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)