अमेरिकी व्यापारी ने कहा, ‘मैं बताता हूं भारत में आपकी समस्या क्या है। आपका इतिहास बहुत है। इतना ज्यादा कि उसका शांति से इस्तेमाल नहीं कर सकते। इसलिए आप इतिहास को एक-दूसरे के खिलाफ तलवार की तरह चलाते रहते हैं।’
ऐसा कोई व्यापारी नहीं था, यह काल्पनिक किरदार है। इसे मैंने 2001 में अपने उपन्यास ‘राएट’ के लिए खोजा था, जो राम जन्मभूमि आंदोलन के शुरुआती दौर में भड़के हिन्दू-मुस्लिम दंगों से जुड़ा था। यह किरदार दिन-ब-दिन वास्तविक लगता जा रहा है। खबर है कि सुप्रीम कोर्ट भाजपा प्रवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई करेगा, जिन्होंने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की वैधता को चुनौती दी है।
कम से कम 3 मुकदमे और एक रिट पिटिशन दायर की गई है। इनमें उन प्राचीन मंदिरों को फिर बनाने की मांग की है, जिनकी जगह मस्जिद या इस्लामिक स्मारक बन गए हैं। यह वैसी ही परिस्थिति है, जैसी अयोध्या में बाबरी मस्जिद के खंडहर पर राम मंदिर बनाने की मांग की थी। इनमें मथुरा में श्री कृष्ण मंदिर परिसर से जुड़ी शाही ईदगाह मस्जिद हटाने की मांग है। इसे भगवान कृष्ण की जन्मस्थली माना जाता है। ज्ञानवापी मस्जिद, वाराणसी में एक प्राचीन मंदिर के पुनर्निर्माण की मांग है।
दोनों मस्जिदें औरंगजेब के शासनकाल में बनी थीं। एक याचिका में कुतुब मीनार परिसर में पूजा की अनुमति मांगी गई है, क्योंकि कथित रूप से इसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने 27 हिन्दू और जैन मंदिरों को मिटाकर बनाया था।
भारत में त्रासदी यह है कि जो लोग इतिहास जानते हैं, वे भी उसे दोहराने के दोषी लगते हैं। 1991 में संसद का भी यही मत था, जब उसने पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम लागू किया था। इसकी धारा 4 कहती है कि पूजास्थल का धार्मिक चरित्र वही रहेगा, जो मौजूदा स्थिति में है और अदालतें इससे जुड़े मुकदमों पर सुनवाई नहीं करेंगी। अधिनियम की मंशा सामाजिक शांति सुनिश्चित करना थी।
यह विडंबना ही है कि भारत तकनीक से प्रेरित भविष्य की दृष्टि वाले 21वीं सदी के तीसरे दशक में आगे बढ़ते हुए भी अतीत के सिद्धांतों में बंधा लगता है। अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिका पूजास्थल के बारे में हैं, सॉफ्टवेयर लैब के बारे में नहीं, धर्म को समर्पित है, ‘विकास’ को नहीं। भारत ऐसा देश है जहां इतिहास, मिथक और पौराणिक कथाएं एक साथ मौजूद हैं और हम कभी-कभी इनमें अंतर नहीं कर पाते। एक मस्जिद मिटाकर, उसकी जगह मंदिर बनाने से गलत, सही नहीं हो जाएगा, बल्कि यह एक नई गलती होगी। बाबरी मुद्दे का समाधान तो सुप्रीम कोर्ट ने कर दिया, लेकिन घाव अब भी हैं। मौजूदा मामला उन घावों को फिर कुरेद देगा।
स्वतंत्रता के बाद दशकों तक भारत की सरकारें धर्मनिरपेक्ष देश में मुस्लिमों की सुरक्षा सुनिश्चित करती रहीं, उन्हें देश में ही नागरिक संहिता से अलग मुस्लिम ‘पर्सनल लॉ’ बरकरार रखने दिया। मस्जिद ढहाना उन्हें उस समझौते में धोखे की तरह लगा, जिसने मुस्लिम समुदाय को भारत के बहुलतावादी लोकतंत्र का मुख्य हिस्सा बनाए रखा था। और मस्जिदों को मिटाना उस धोखे पर और जोर देगा।
मस्जिद पर हमला करने वाले हिन्दुत्ववादियों की भारतीय लोकतंत्र के संस्थानों में बहुत कम आस्था थी। उनके लिए 1000 साल के गैर-हिन्दू राज (पहले मुस्लिम, फिर ब्रिटिश) के बाद आजाद हुए भारत को एक ऐसी पहचान देना जैसे कोई दायित्व था, वह भी विजयभाव के साथ हिन्दू पहचान।
मौजूदा याचिका भी इसी बारे में है। जैसे इस्लामी कट्टरपंथी को अपनी जड़ें उनके धर्मशास्त्र में नहीं दिखतीं, वैसे ही हिन्दुत्ववादी अपने हिन्दू धर्म की जड़ें उसके किसी दार्शनिक या आध्यात्मिक आधारों में नहीं खोजते, बल्कि पहचान के स्रोत में उसकी भूमिका में खोजते हैं। वे हिन्दुत्व को एक सिद्धांत या मत के रूप में स्वीकार करने की बजाय, हिन्दुत्व के नाम पर बदला लेना चाहते हैं। ऐसा करते हुए वे उसी धर्म से विश्वासघात कर रहे हैं, जिसे मानने का वे दावा करते हैं।
ऐसा धर्म जो न सिर्फ उदारता का मूर्तरूप है और मतभेदों को स्वीकारता है, बल्कि एकमात्र बड़ा धर्म है, जो यह दावा नहीं करता कि वही सच्चा धर्म है। हिन्दू धर्म में पूजा के सभी तरीके मान्य हैं और वह धर्म को किसी व्यक्ति की ईश्वर से संबंध की आत्मानुभूति का निजी मामला मानता है। ऐसा धर्म मानता है कि आस्था दिल और मन का मामला है, ईंट-पत्थरों का नहीं। असली हिन्दू इतिहास से बदला नहीं लेता, वह समझता है कि इतिहास ही खुद का बदला है।
पूजास्थलों पर याचिका भारतीय लोकतंत्र के उस वादे के लिए भी सही नहीं है, जो बीते कल की कल्पित विकृतियों को सुधारने की बजाय, समाज से आने वाले कल के लिए कल्याण और समृद्धि की दिशा में काम करने को कहता है। अगर अदालतें इस मामले में समाधान पर विचार करेंगी, तो इतिहास के लिए नए खतरे पैदा होंगे और आने वाली पीढ़ी को ‘नए गलत’ सिखाए जाएंगे, सही करने के लिए। समय है कि हम पुरानी यादों को अलग रखें और भविष्य पर ध्यान दें। देश हित में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका को भुला देना चाहिए।
शशि थरूर
(लेखक कांग्रेसी सांसद हैं ये उनके निजी विचार हैं)