होम टीचर बनना आसान नहीं

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वह कमजोर प्रदर्शन कर रहे सीनियर खिलाड़ी हों, विंग्स में बैठे नए खिलाड़ी या फिर उभरते सितारे, उनसे पूछिए कि कुछ जानने-समझने के लिए वे किसके पास जाते हैं। जवाब एक ही होगा- राहुल द्रविड सर। फॉर्म से बाहर चल रहे खिलाड़ियों को मौका देने से लेकर बेंच स्ट्रेंथ बढ़ाने के लिए उनकी खूबी पहचानने तक, पिछले साढ़े पांच सालों में राहुल द्रविड मुख्य किरदार बनकर उभरे हैं, जो कि अब नेशनल क्रिकेट एकेडमी के प्रमुख भी हैं। उत्कृष्टता से भी परे एक शिक्षक।

यह सिर्फ क्रिकेट से जुड़े शिक्षक की कहानी नहीं है, जिसके नए छात्रों ने वह कर दिखाया जो सीनियर नहीं कर पाए। अब कहानी क्रिकेट शिक्षक से न सिर्फ स्कूल तक, बल्कि होम स्कूल (घर पर पढ़ाई) तक पहुंच गई है। दुनिया के अमीरों के लिए बटलर और हाउसकीपर की भर्ती करने वाली लक्जरी एजेंसियों के आंकड़े देखें, तो पाएंगे कि सेलिब्रिटीज ऐसे लोगों में रुचि ले रहे हैं, जो उनके बच्चों को घर में पढ़ा सकें।

ये एजेंसियां चीफ एक्जीक्यूटिव, आंत्रप्रेन्योर, राजनयिक, फिल्म सितारों, डॉक्टरों, टीवी शो व फिल्म निर्माताओं आदि के अमीर परिवारों को स्टाफ उपलब्ध करवाती हैं। इनके मुताबिक ग्राहक अब शिक्षित, डिग्री वाले और विशेषतौर पर शिक्षण में डिग्री वाले लोग तलाशने में मदद मांग रहे हैं। अमीर पेशेवरों की अनंत सूची है। याद रखें कि ये परिवार एक बटलर को एक लाख पाउंड और हाउसकीपर को 65,000 पाउंड सालाना तक दे देते हैं। साथ ही दोनों के परिवारों की पास ही रहने की व्यवस्था अलग से होती है।

उल्लेखनीय है कि ऐसे अमीर माता-पिता के बच्चों की स्कूल फीस भी कई लाख रुपए होती है। इसलिए आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी शिक्षक को घर पर अच्छी अंग्रेजी, गणित और विज्ञान पढ़ाने के साथ बच्चे को बेहतर इंसान बनाने के एवज में कितना पैसा मिलेगा। अगर ये शिक्षक युवा और खेलप्रेमी हों तो उन्हें और ऊंची कीमत मिलती है।

पोलो एंड ट्वीड, एचएम रेवेन्यू एंड कस्टम्स की यूके और अमेरिका समेत कई यूरोपीय देशों में ब्रांच हैं। वे रोजाना कम से कम एक होमस्कूल शिक्षक को नियुक्त कर रही हैं। याद रखें कि ये एजेंसियां बटलर और हाउसकीपर सिल्वर सर्विस (केवल अमीरों को मिलने वाली सेवाएं) के लिए घर के प्रबंधन और शिष्टाचार का प्रशिक्षण देती हैं। कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि ये परिवार क्या चाहते हैं, एक 360 डिग्री पर्सनालिटी के साथ उच्च शिष्टाचार वाला व्यक्ति, जिसमें शैक्षणिक योग्यता भी हो।

होम टीचर बनना आसान नहीं है। इसके लिए दिन को स्कूल टाइमटेबल की तरह प्लान करना होता है, हालांकि यह बच्चे की उम्र पर निर्भर है। वास्तव में मेरे एक चचेरे भाई को न्यूयॉर्क निवासी एक बेहद अमीर परिवार में होमस्कूलर की नौकरी मिली है, जिनके बारे में मैं बता नहीं सकता। वह उनके दो बच्चों को ग्रामीण इलाकों के मुश्किल हालात और गरीबी दिखाने भी ले जाता है, जहां साथ में कोई सिक्योरिटी नहीं होती। और उसे नौकरी देने वाले इस बात से बहुत उत्साहित हैं। मेरे भाई के पास शिक्षण की डिग्री तो है ही, साथ ही उसे कराटे आता है और वह काउंटी स्तर का बास्केबॉल खिलाड़ी भी है। इसलिए उसे मोटा वेतन मिलता है।

इसका महामारी से कोई संबंध नहीं है, हालांकि योग्य होमस्कूलर की मांग महामारी के बाद बढ़ी है। अमीर मां-बाप समझ गए हैं कि होम स्कूलिंग में उनके बच्चे पर विशेष ध्यान दिया जाता है और जीवन के विभिन्न पहलुओं से भी वे वाकिफ होते हैं। उन्हें सिर्फ ऐसे सही व्यक्ति का चुनाव करना होता है, जो उनकी ‘विचार प्रक्रिया और पारिवारिक मूल्यों’ के अनुसार सही हो।

जीत की संभावना ज्यादा: नवकेतन फिल्म्स के बैनर तले बनी ढेरों फिल्मों को देखें, तो फ्लॉप की संख्या व्यावसायिक रूप से सफल फिल्मों से कहीं ज्यादा है। इस आधार पर तो देव आनंद को फिल्में बनाना बहुत पहले बंद कर देना चाहिए था। उनमें खुद को और नए कलाकारों को फिल्मों में रखकर निर्माण लागत कम रखने की क्षमता थी, जो बॉलीवुड में विलक्षण है। देव आनंद की एक आम फिल्म की लागत 2 करोड़ रुपए थी, जबकि औसत बॉलीवुड फिल्म पर करीब 15 करोड़ खर्च होते थे। बॉलीवुड कवर कर रहे मेरे कई साथी पत्रकारों से वे कहते थे, ‘जब तक मैं जिंदा हूं, फिल्में बनाता रहूंगा।’ तब उनका मशहूर कथन था, ‘मैं जब जून 1942 में ट्रेन से बॉम्बे के लिए निकला, तब मेरी जेब में 30 रुपए थे। मैं हीरो बनने के लिए दोस्तों के घर रुका, कम खाने पर जिंदा रहा। मेरा क्या नुकसान हो सकता है। मैं कभी भी 30 रुपए लेकर घर वापस जा सकता हूं..’ मुझे देव साहब के ये शद याद आए, जब अजिंय रहाणे के नेतृत्व में भारत ने बॉर्डर-गावसकर ट्रॉफी 2020-21 के अंतिम, चौथे टेस्ट मैच में ऑस्ट्रेलिया को तीन विकेट से हराकर सीरीज पर कजा किया और ऑस्ट्रेलिया के 32 साल लंबे जीत के सिलसिले को खत्म कर दिया।

ऑस्ट्रेलिया 1988 से अब तक ब्रिस्बेन में नहीं हारी थी। याद रखें कि हमारी क्रिकेट टीम पर टूटी हड्डियों और चोटिल शरीरों का बोझ था, लेकिन उसने ट्रॉफी बरकरार रखने के लिए अनोखा उत्साह दिखाते हुए ऑस्ट्रेलिया पर जीत हासिल की। टीम ने सफलतापूर्वक 328 रनों के लक्ष्य का पीछा कर सीरीज 2-1 से जीती। सबसे बड़ी बात यह कि पेट में जीत की आग रखने वाले आक्रामक कप्तान विराट कोहली की गैर-मौजूदगी में टीम ने ऐसा किया, जो फिलहाल पितृत्व अवकाश पर हैं। भारतीय टीम को इसका लाभ मिला कि टीम में नए खिलाड़ी थे, जिनके मन में कोई बंधन नहीं थे। तमिल में एक पुरानी कहावत है, ‘आप धागे से बांधकर पहाड़ खीचें। अगर सफल रहे तो आपकी जेब में पहाड़ होगा, और नहीं हुए तो सिर्फ धागे का नुकसान होगा।’ खासतौर पर यह चौथा टेस्ट बेफिक्री की मानसिकता से खेला गया था। दूसरी तरफ, ऑस्ट्रेलिया ने अपना ट्रेडमार्क व्यवहार जारी रखा और स्लेजिंग, चीखकर गलत अपील और खेल भावना के विरुद्ध हाव-भाव का प्रदर्शन करते रहे क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके अलावा कोई नहीं जीत सकता।

उन्होंने भारत को इतिहास बनाने दिया। मैं अपनी सीट से हिला भी नहीं, जब पंत कट, ड्रोव और पैडल-स्वेप्ट शॉट मारते हुए आलोचकों को जवाब दे रहे थे और भारत को विदेश में शानदार जीत दिलाने के लिए अंतिम सेशन के आखिरी पलों में ऑफ-ड्राइव बाउंड्री मार रहे थे। हुनर के भंडार ऋ षभ पंत (138 गेंद पर 89 रन नाबाद) ने अपने अंदर के ‘मैड मैस’ को जगाकर असाधारण खेल से ऑस्ट्रेलियाई खिलाडिय़ों को डरा दिया और ‘गाबा के किले’ पर 32 साल से कब्जा कर बैठी टीम को हरा दिया। बेशक आखिरी दिन के प्रदर्शन की विशेष जगह है, लेकिन इस मैच की कहानी सबसे जूनियर शार्दुल ठाकुर और वॉशिंगटन सुंदर के उल्लेख के बिना अधूरी है, जिन्होंने तीसरी सुबह और दोपहर को शानदार साझेदारी की। इसके बिना भारत के लिए जीत इतनी आसान न होती। संक्षेप में ठाकुर और वॉशिंगटन ने लड़ाई की उम्मीद दी और पुजारा, गिल और पंत ने अपने प्रदर्शनों से उस लड़ाई का सम्मान किया। फंडा यह है कि जब आपके पास खोने को कुछ नहीं होता और आप लड़ाई में अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं, तो जीत की संभावना हमेशा बहुत ज्यादा होती है।

एन. रघुरामन
(लेखक मैनेजमेंट गुरु हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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